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________________ मरण के लिए प्रशस्त देश और काल १११५ व्यक्ति मोक्ष ( संसार से अन्तिम छुटकारा) पाता है।' इसी अर्थ में स्कन्दपुराण में आया है--'गंगा के तटों से एक गव्यूति ( दो कोस ) तक क्षेत्र ( पवित्र स्थान) होता है, इतनी दूर तक दान, जप एवं होम करने से गंगा का ही फल प्राप्त होता है; जो इस क्षेत्र में मरता है, वह स्वर्ग जाता है और पुनः जन्म नहीं पाता' (शुद्धितत्व, पृ० २९९-३००; शुद्धिप्रकाश, पृ० १५५) । पूजारत्नाकर में आया है— 'जहाँ जहाँ शालग्रामशिला होती है वहाँ हरि का निवास रहता है; जो शालग्रामशिला के पास मरता है, वह हरि का परमपद प्राप्त करता है।' ऐसा भी कहा गया है कि यदि कोई अनार्य देश (कीकट) में भी शालग्राम से एक कोस की दूरी पर मरता है वह वैकुण्ठ (विष्णुलोक ) पाता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति तुलसी के वन में मरता है या मरते समय जिसके मुख में तुलसीदल रहता है वह करोड़ों पाप करने पर भी मोक्षपद प्राप्त करता है। इस प्रकार की भावनाएँ आज भी लोकप्रसिद्ध हैं । " मृत्यु के उत्तम काल के विषय में भी कुछ धारणाएँ हैं । शान्तिपर्व ( २९८ २३, कल्पतरु, मोक्षकाण्ड, पृ० २५४ ) में आया है—' जो व्यक्ति सूर्य के उत्तर दिशा में जाने पर (उत्तरायण होने पर) मरता है या किसी अन्य शुभ नक्षत्र एवं मुहूर्त में मरता है, वह सचमुच पुण्यवान् है।' यह भावना उपनिषदों में व्यक्त उत्तरायण एवं दक्षिणायन में मरने की धारणा पर आधारित है । छान्दोग्योपनिषद् (४/१५/५-६ ) में आया है - " अब ( यदि यह आत्मज्ञानी व्यक्ति मरता है ) चाहे लोग उसकी अन्त्येष्टि क्रिया (श्राद्ध आदि) करें या न करें वह अचः अर्थात् प्रकाश को प्राप्त होता है, प्रकाश से दिन, दिन से चन्द्र के अर्ध प्रकाश ( शुक्ल पक्ष ), उससे उत्तरायण के छ: मास, उससे वर्ष, वर्ष से सूर्य, सूर्य से चन्द्र, चन्द्र से विद्युत् को प्राप्त होता है। अमानव उसे ब्रह्म की ओर ले जाता है। यह देवों का मार्ग है; वह मार्ग, जिससे ब्रह्म की प्राप्ति होती है। जो लोग इस मार्ग से जाते वे मानव-जीवन में पुनः नहीं लौटते । हाँ, वे नहीं लौटते।” ऐसी ही बात छा० उप० (५/१०/१-२ ) में आयी है, जहाँ कहा गया है कि पंचाग्नि-विद्या जाननेवाले गृहस्थ तथा विश्वास (श्रद्धा) एवं तप करनेवाले वानप्रस्थ एवं परिव्राजक (जो अभी ब्रह्म को नहीं जानते ) भी देवयान (देवमार्ग) से जाते 1 और (५।१०१३-७ ) जो लोग ग्रामवासी हैं, यज्ञपरायण हैं, दानदक्षिणायुक्त हैं, घूम को जाते हैं, वे धूम से रात्रि, रात्रि से चन्द्र के अर्ध अंधकार ( कृष्ण पक्ष ) में, उससे दक्षिणायन के छ: मास, उससे पितृलोक, उससे आकाश एवं चन्द्र को जाते हैं, जहाँ वे कर्मफल पाते हैं और पुनः उसी मार्ग से लौट आते हैं। छान्दोग्योपनिषद् ( ५/१०१८) ने एक तीसरे स्थान की ओर संकेत किया है, जहाँ कीट-पतंग आदि लगातार आते-जाते रहते हैं । बृहदारण्यकोपनिषद् (६।२।११५-१६) ने भी देवलोक, पितृलोक एवं उस लोक १२. कूर्मपुराणम् । गंगायां च जले मोक्षो वाराणस्यां जले स्थले । जले स्थले चान्तरिक्षे गंगासागरसंगमे ॥ तथा स्कन्दे ---तीराद् गव्यूतिमात्रं तु परितः क्षेत्रमुच्यते । अत्र दानं जपो होमो गंगायां नात्र संशयः ॥ अत्रस्थास्त्रिदिव यान्ति ये मृता न पुनर्भवाः । शुद्धितत्त्व ( पृ० २९९ - ३०० ); शुद्धिप्रकाश ( पृ० १५५ ) । पूजारत्नाकरे -- शालप्रामशिला यत्र तत्र संनिहितो हरिः । तत्सन्निधौ त्यजेत् प्राणान् याति विष्णोः परं पदम् ।। लिंगपुराणे —— शालग्रामसमीपे तु क्रोशमात्रं समन्ततः । कीकटेपि मृतो याति वैकुण्ठभवनं नरः । वैष्णवामृते व्यासः -- तुलसीकानने जन्तोर्यदि मृत्युर्भवेत् क्वचित् । स निर्भर्त्स्य नरं पापी लीलयैव हरि विशेत् ॥ प्रयाणकाले यस्यास्ये दीयते तुलसीदलम् । निर्वाणं याति पक्षीन्द्र पापकोटियु तोपि सः ॥ शुद्धितत्त्व ( पृ० २९९ ); शुद्धिप्रकाश ( पृ० १५५ ) । ' कीकट' मगध देश का नाम है, जिसे ऋग्वेद (३१५३।१४ ) में आर्यधर्म से बाहर की भूमि कहा गया है। और देखिए निरुक्त ( ६ ३२ ) जहाँ कीकट देश को अनार्य-निवास कहा गया है। शुद्धिप्रकाश 'कीकटेपि' के स्थान पर 'कीटकोऽपि' लिखता है जो अधिक 'समीचीन है, किन्तु यह संशोधन भी हो सकता है। ६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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