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________________ १११४ धर्मशास्त्र का इतिहास जीवन के उपरान्त उसका जीवात्मा आक्रान्त होता है (अन्ते या मतिः सा गतिः), अतः मृत्यु के समय व्यक्ति को सांसारिक मोह-माया छोड़कर हरि या शिव का स्मरण करना चाहिए और मन ही मन 'ओं नमो वासुदेवाय' का जप करना चाहिए। बहुत से वचनों के अनुसार उसे वैदिक पाठ सुनाना चाहिए। देखिए गौतम-पितृमेधसूत्र (१११-८)। हिरण्यकेशिपितृमेधसूत्र (११) के मत से आहिताग्नि के मरते समय पुत्र या सम्बन्धी को उसके कान में (जब वह ब्रह्मज्ञानी हो) तैत्तिरीयोपनिषद् के दो अनुवाक (२।१ एवं ३।१) कहने चाहिए। अन्त्यकर्मदीपक (पृ० १८) का कथन है कि जब मरणासन्न व्यक्ति जप न कर सके तो उसे विष्णु या शिव का रमणीय रूप मन में धारण कर विष्णु या शिव के सहस्र नाम सुनने चाहिए और भगवद्गीता, भागवत, रामायण, ईशावास्य आदि उपनिषदों एवं सामवेदीय मन्त्रों का पाठ सुनना चाहिए। उपनिषदों में भी मरणासन्न व्यक्ति की भावनाओं के विषय में संकेत मिलते हैं। छान्दोग्योपनिषद् (शाण्डिल्य-विद्या, ३३१४।१) में आया है-'सभी ब्रह्म है। व्यक्ति को आदि, अन्त एवं इसी में स्थिति के रूप में इसका (ब्रह्म का) ध्यान करना चाहिए। इसी की इच्छा की सृष्टि मनुष्य है। इस विश्व में उसकी जो इच्छा (या भावना) होगी, उसी के अनसार वह इहलोक से जाने के उपरान्त होगा। इसी प्रकार की भावना प्रश्नोपनिषद (३११०) में भी पायी जाती है। वहाँ ऐसा आया है कि विचार-शक्ति आत्मा को उच्चतर उठाती जाती है जिससे मनुष्य-मन को ऐसा परिज्ञान होना चाहिए कि अखिल ब्रह्माण्ड में जितने भौतिक पदार्थ या अभिव्यक्तियाँ हैं वे सब एक हैं और उनमें एक ही विभु रूप समाया हुआ है। भगवद्गीता ने यही भावना और अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त की है-'वह व्यक्ति, जो अन्तकाल में मझे स्मरण करता हआ इस जीवन से बिदा होता है, वह मेरे पास आता है, इसमें संशय नहीं है। (८1५)। किन्तु एक बात स्मरणीय यह है कि अन्तकाल में ही केवल भगवा मरण करने से कुछ न होगा; जब जीवन भर आत्मा ऐसी भावना से अभिभूत रहता है तभी भगवत्प्राप्ति होती है। ऐसा कहा गया है-'व्यक्ति मृत्यु के समय जो भी रूप (या वस्तु) सोचता है, उसी को वह प्राप्त होता है, और यह तभी सम्भव है जब कि वह जीवन भर ऐसा करता आया हो (भग० ८।६)। पुराणों के आधार पर कुछ निबन्धों का ऐसा कथन है कि अन्तकाल उपस्थित होने पर व्यक्ति को, यदि सम्भव हो तो, किसी तीर्थ-स्थान (यथा गंगा) में ले जाना चाहिए। शुद्धितत्त्व (पृ० २९९) ने कूर्मपुराण को उद्धृत किया है-'गंगा के जल में, वाराणसी के स्थल या जल में, गंगासागर में या उसकी ममि, जल या अन्तरिक्ष में मरने से ९. देखिए भगवद्गीता (८१५-६)एवं पद्मपुराण (५।४७।२६२)--'मरणे यामति : पुंसां गतिर्भवति तादृशी।' १०. जपेऽसमर्थश्चेद हृदये चतुर्भुजं शंखचक्रगदापद्मधरं पीताम्बरकिरीटकेयूरकौस्तुभवनमालाधरं रमणीयरूपं विष्णुं त्रिशूलडमरुधरं चन्द्रचूडं त्रिनेत्रं गंगाधरं शिवं वा भावयन् सहस्रनामगीताभागवतभारतरामायणेशावास्याधुपनिषदः पावमानादीनि सूक्तानि च यथासम्भवं शृणुयात्। अ० क० दी० (पृ० १८)। विष्णुसहस्रनाम के लिए देखिए अनुशासनपर्व (१४९।१४-१२०); शिव के १००८ नामों के लिए देखिए वही (१७३३१-१५३); और शिवसहस्रनाम के लिए देखिए शान्तिपर्व भी (२८५।७४) । ११. सर्व खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीताथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स ऋतुं कुर्वीत । छा० उप (३।१४।१) । अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । यः प्रयाति स मभावं याति नास्त्यत्र संशयः॥ यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥ भगवद्गीता (८१५-६) देखिए और शांकरभाष्य, वेदान्तसूत्र (१।२।१ एवं ४।१।१२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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