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________________ ६५८ धर्मशास्त्र का इतिहास मानवीय प्रयत्न एवं देव (भाग्य या नियति)पर कई स्थलों में चर्चाएं हुई हैं। आदि० (११२४६-२४७, ८६७-१०), सभा० (४६-१६, ४७।३६, ५८।१४), वन० (१७६।२७-२८), उद्योग० (८।५२, ४०।३२, १५६।४, १८६।१), आश्रमवासिक० (१०।२६) में देव पर अधिक बल दिया गया है। किन्तु मध्यम मार्ग का निर्देश आदि० (१२३।२१), सभा० (१६।१२), उद्योग० (७६।५-६), शान्ति० (५६।१४-१५), सौप्तिक० (२।३) में हुआ है और कहा गया है कि सांसारिक कार्यों में पुरुषकार (प्रयत्न) एवं दैव दोनों की आवश्यकता है। कहीं-कहीं प्रयत्न पर अधिक बल दिया गया है और कहा गया है कि व्यक्ति को प्रयत्न करते जाना चाहिए और भाग्य के भरोसे नहीं बैठ जाना चाहिए (द्रोण १५२।२७; शान्ति० २७।३२, ५८।१३-१६, १५३।५०; अनुशासन० ६.१; सौप्तिक० २।१२-१३ एवं २३ -२४)। शान्ति० (५८।१३-१५) के अनुसार उत्साहपूर्ण कर्म ही राजधर्म का मूल है। इसी उत्साहपूर्ण कर्म अर्थात् उत्थान से देवों को अमृत की प्राप्ति हुई,असुरों का हनन हुआ एवं इन्द्र को श्रेष्ठ पद मिला। देखिए भगवद्गीता (१८।१३-१६) भी। कौटिल्य (१1१६)का कहना है-"धन के मूल में उत्थान है, उत्थान के विरोधी भाव से बुराई उत्पन्न होती है। उत्थान के अभाव में वर्तमान एवं भविष्य की प्राप्ति का ह्रास निश्चित है, उत्थान के द्वारा राजा मनोवांछित वस्तु एवं प्रचर धन की प्राप्ति कर सकता है ।" याज्ञ० (११३४६ एवं ३५१) का कथन है कि किसी योजना की सफलता देव (भाग्य) एवं मानवीय प्रयत्न दोनों पर निर्भर है, किन्तु भाग्य कुछ नहीं है, वह तो मानव के गत जीवनों के कर्मों का प्रतिफल है और(आज इस जीवन में)प्रभाव के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है ; जिस प्रकार एक पहिया से रथ नहीं चलता उसी प्रकार बिना मानवीय प्रयत्न या कर्म के भाग्य से कुछ सम्भव नहीं है । इस विषय में देखिए मनु (७।२०५), मत्स्य० (२२११११२), विष्णुधर्मोत्तर(२०६६)एवं राजनीतिप्रकाश (पृ० ३१३-३१४), जहाँ याज्ञ० (११३४६ एवं ३५१) की बातें कही गयी हैं। मत्स्य० (२२१।१२) में आया है--"तस्मात् सदोत्थानवता हि भाव्यम् ।" मत्स्य० (२२।२) ने मानवीय प्रयत्न को उत्तम माना है। मेधातिथि (मनु ४।१३७) ने एक सुभाषित उद्धृत किया है-"प्रयत्न से हीन लोग ग्रहस्थिति पर निर्भर रहते हैं, जो दृढप्रतिज्ञ और व्यवसायी होते हैं उनके लिए कुछ भी करना असम्भव नहीं है। कौटिल्य (६४) एवं काम० (५।११ एवं १३॥३-११) ने सतत प्रयत्न करते रहने पर बल दिया है। यही बात शुक्लनीतिसार (१।४६-५८) में भी कही गयी है । और देखिए शुक्रनीतिसार(१।४८-४६),राजनीतिप्रकाश (पृ. ३१२. ३१५), नीतिमयूख (पृ० ५२-५३), जहाँ देव एवं प्रयल पर विशेष रूप से चर्चाएं हुई हैं। महाभारत में एक स्थल (उद्योग० १२७११६) पर आया है कि मनुष्य को सदा प्रयत्न करते रहना चाहिए, उसे झुकना नहीं चाहिए ;प्रयत्न करना पुरुषार्थ है, एक स्थल पर जहाँ सन्धि नहीं है, मनुष्य टूट सकता है, किन्तु उसे झुकना नहीं चाहिए। इस विषय में और देखिए बहत्पराशरस्मृति (१०, पृ० २८२-२८३), वायुपुराण (६।६०-६१) एवं मार्कण्डेयपुराण (२०६१६२ एवं २३।२५-२६)। सन्न रोचते । वृद्धानां वचनं श्रुत्वा योभ्युत्थानं प्रयोजयेत् । उत्थानस्य फलं सम्यक् तदा स लभतेऽचिरात् ॥ सौप्तिक० (२।१३ एवं २३); उत्थानं हि नरेन्द्राणां बृहस्पतिरभाषत । राजधर्मस्य तन्मूलं श्लोकाँश्चात्र निबोध मे ॥ उत्थानेनामृतं लब्धमुत्थानेनासुरा हताः । उत्थानेन महेन्द्रेण श्रेष्ठ्यं प्राप्त दिवीह च ।। उत्थानवीरः पुरुषो वाग्वीरानधितिष्ठति । उत्पानवीरान्वाग्वीरा रमयन्त उपासते । शान्ति० (५८।१३--१५)। १६. स्वमेव कर्म देवास्यं विद्धि देहान्तराजितम् । तस्मात्पौरुषमेवेह श्रेष्ठमाहुर्मनीषिणः ॥मत्य० (२२१।२); भीमन्तो बन्धचरिता मन्यन्ते पौरुषं महत् । अशक्ताः पौरुषं करें क्लोबा देवमुपासते । दैवे पुरुषकारे च खलु सर्व प्रतिष्ठितम् ॥ शुक्र० (१४८-४६); अस्ति कस्यचित्सुभाषितम् । हीनाः पुरुषकारेण गणयन्ति ग्रहस्थितिम् । सत्त्वोचमसमर्थानां नासाध्य व्यवसायिनाम ॥ मेधा० (मनु ४।१३७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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