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तीन शक्तियाँ और चार उपाय
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अर्थशास्त्रकारों का एक प्रमुख सिद्धान्त उत्साह की आवश्यकता पर आधारित है। यह उत्साह, प्रभु ( प्रभाव ) एवं मन्त्र नामक तीन शक्तियों वाला सिद्धान्त कहा जाता है। इन तीनों का उल्लेख महाभारत में भी हुआ है (आश्रमवासिकपर्व ७।६) । सरस्वती विलास ( पृ० ४६ ) ने इनके संबन्ध में गौतम के एक सूत्र ( जो प्रकाशित अंशों में नहीं पाया जाता) का उद्धरण दिया है । २° कौटिल्य ( ६।२ ) ने मन्त्रशक्ति को ज्ञानबल, प्रभुशक्ति को कोषबल एवं उत्साहशक्ति को विक्रमबल कहा है । २१ कौटिल्य ने विश्लेषण एवं तुलना करके प्रभुशक्ति को उत्साहशक्ति से तथा मन्त्रशक्ति को प्रभुशक्ति से महत्तर माना है । कामन्दक ( १५।३२ ) ने इन शक्तियों की परिभाषा की है - "छः उपायों (मन्धि-विग्रह आदि) में यथोचित नीति का निर्धारण ही मन्त्रशक्ति है, पूर्ण कोश एवं सन्यबल प्रभुशक्ति का द्योतक होता है तथा शक्तिशाली की क्रियाशीलता ही उत्साहशक्ति की परिचायक है। जिस राजा को ये शक्तियाँ प्राप्त रहती हैं वह विजयी होता है यही परिभाषा नीतिवाक्यामृत ( षाड्गुण्यसमुद्देश, पृ० ३२२ ) में भी पायी जाती है । इस विषय में और देखिए दशकुमारचरित (८), परशुरामप्रताप, अग्निपुराण (२४१।१), मानसोल्लास ( २/८ - १०, पृ० ६१-६४ ), कामन्दक (१३।४१-५८ ) । २३
शक्तिशाली राजा को अपनी राज्य- सीमाएँ बढ़ाने तथा प्रजा को अपने अधिकार में रखने के लिए कई उपायों का सहारा लेना पड़ता था। रामायण ( ५।४१२ - ३ ), मनु (७।१०६), याज्ञ ० ( १।३४६), शुक्र (४/१/२७ ) आदि के मत से उपाय चार हैं, यथा -- साम, दान, भेद एवं दण्ड । २४ खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में आया है कि खारवेल ने राज्याभिषेक के दसवें वर्ष में दण्ड, सन्धि, साम की नीति के अनुसार अपनी सेना भारतवर्ष के विरोध में भेजी और उसे जीत लिया तथा बहुत से हीरे-जवाहरात ( रत्न आदि) प्राप्त किये (एपि० इण्डिका, जिल्द २०, पृ०७६, ८८ ) । यह अभिलेख ई० पूर्वं दूसरी शताब्दी का माना जाता है, अतः स्पष्ट है कि ईसा के कई शताब्दियों पूर्व से ही उपायों के सिद्धान्त का प्रचलन था । कुछ ग्रन्थकारों एवं ग्रन्थों ने उपर्युक्त चार उपायों के अतिरिक्त कुछ अन्य उपायों की भी चर्चा कर दी है, यथा -- काम ० ( १७१३), मत्स्य० (२२२/२), अग्नि० ( २२६१५-६ ), बार्हस्पत्य सूत्र ( ५1१-३),
२०. अतएव गौतमसूत्रम् । प्रभुमन्त्रोत्साहशक्तयस्तन्मूला इति । तन्मूलाः कोशमूला इत्यर्थः । सरस्वतीविलास, पृ० ४६ ।
२१. शक्तिस्त्रिविधा । ज्ञानबलं मन्त्रशक्तिः कोशबलं प्रभुशक्तिः विक्रमबलमुत्साहशक्तिः । अर्थशास्त्र ६ २,
पृ० २६१ ।
२२. मन्त्रस्य शक्तिं सुनयोपचारं सुकोशदण्डो प्रभुशक्तिमाहुः । उत्साहशक्ति बलवद्विचेष्टां त्रिशक्तियुक्तो भवतीह जेता || कामन्दकीय १५/३२ ।
२३. कोशवण्डबलं प्रभुशक्तिः । शूद्रशक्तिकुमारौ दृष्टान्तौ । विक्रमो बलं चोत्साहशक्तिस्तत्र रामो दृष्टान्तः । नीतिवाक्यामृत, पृ० ३२२ - ३२३, मन्त्रेण हि विनिश्चयोऽर्थानां प्रभावेण प्रारम्भ उत्साहेन निर्वहणम् । दशकुमारचरित (८, पृ० २४४ ) ; आज्ञारूपेण या शक्तिः सर्वेषां मूर्धनि स्थिता । प्रभुशक्तिर्हि सा ज्ञ ेया सप्रभामहिमोदया | परशुरामप्रताप द्वारा उद्धृत । और देखिए पञ्चतन्त्र ( ३३० ) - ' उत्साहशक्तिसम्पन्नो हन्याच्छत्रु लघुर्गुरुम् ।'
२४. अल्पशेषमिदं कार्य बृष्टेयमसितेक्षणा । त्रीनुपायानतिक्रम्य चतुर्थ इह दृश्यते ।। न साम रक्षःसु गुणाय कल्पते न दानमर्थोपचितेषु युज्यते । न भेदसाध्या बलदर्पिता जनाः पराक्रमस्त्वेव ममेह रोचते । सुन्दरकाण्ड ( ४११२ - ३ ) ; उपायोपपन्नविक्रमोऽनुरक्त प्रकृति रल्पदेशोषि भूपतिर्भवति सार्वभौमः । न हि कुलागता कस्यापि भूमिः किन्तु वीरभोग्या वसुन्धरा । सामोपप्रदानभेददण्डा उपायाः । नीतिवाक्यामृत, पृ० ३३२ ।
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