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________________ चोरी का उत्तरदायित्व; देव और पुरुषार्थ तथा ग्रामों की एक कोस तक करनी चाहिए और उस सीमा के भीतर जो कुछ भी चोरी नायगा, उन्हें (राजकर्मचारियों को) ही देना पड़ेगा। गौतम (१०१४६-४७), मनु (८.४०), याज्ञ० (२।३६), विष्णुधर्मसूत्र (३१६६-६७), शान्ति० (७५॥१०)का कहना है कि राजा को चोरों से चोरी का माल लेकर वास्तविक स्वामी को बिना जाति किये.दिला देना चाहिए, यदि वह ऐसा न कर सके तो उसे राज्यकोष से उसकी पति कर देनी चाहिए : यदि प्राप्त किया हुआ धन वह स्वयं रखले, या चोरों को पकड़ने का भरपूर प्रयत्न न करे, या अपने कोष से चोरी के माल की पूर्ति न करे तो उसे पाप लगेगा। यही बात दूसरे ढंग से कौटिल्य (३।१६) ने भी कही है। और देखिए विश्वरूप (याज्ञ०२१३८) द्वारा बहस्पतिस्मति का उद्धरण। विष्णधर्मोत्तर(२१६१-६२) का कहना है कि यदि कोई अपने नौकरों द्वारा लूट लिया जाय तो राजा को चोरी का माल प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए (मार-पीटकर या धमकी देकर), किन्तु अपने कोष से क्षतिपूर्ति नहीं करनी चाहिए। याज्ञ० (२।२७०-२७२), नारद (परिशिष्ट १६-२१) एवं कात्यायन ने कुछ और बातें कही हैं--चोर द्वारा सारी सम्पनि था उसका मूल्य दिला देना चाहिए; यदि चोर न पकड़ा जा सके तो राजकर्मचारी एवं परिरक्षक को चोरी के सामान का मूल्य चुकाना चाहिए : यदि चोर के पद-चिह्नों का पता न चल सके तो ग्रामाध्यक्षको चोरी का सामान देना चाहिए; यदि चोरी चरागाह या जंगल में हो (और चोर का पता न चल सके) तो स्वयं राजा को ही धन देना चाहिए। यदि चोरी जंगल में न हो प्रत्युत मार्ग में (सड़क पर) हो तो चोरों का पता चलाने के लिए नियुक्त राजकर्मचारियों को क्षतिपूर्ति करनी चाहिए। यदि चोरी ग्राम में हो तो सबको मिलकर क्षतिपूर्ति करनी चाहिए; यदि ग्राम से हटकर एक कोस की दूरी पर चोरी हो तो चारों ओर के पाँच या दस ग्रामों को मिलकर क्षतिपूर्ति करनी चाहिए। याज्ञ० (२।२७१) एवं कात्यायन ने चोरों को पकड़ने वाले अधिकारी को 'चौरोद्धा' (चोरोद्धर्ता) कहा है। बहुत-से शिलालेखों में 'चौरोद्धरणिक' अधिकारी का नाम आया है(एपि० इण्डि०, जिल्द ११, पृ० ८३)। नारायण पाल के शिलालेख में 'चौरोडरणिक' एवं 'कोट्टपाल' (आधुनिक कोतवाल) शब्द आया है (इण्डियन ऐण्टिक्वेरी, जिल्द १५, पृ० ३०४)। कौटिल्य (४।१३) ने भी इसी प्रकार के नियम दिये हैं और 'चोररज्जुक'अधिकारी का नाम लिया है जिसे दो गाँवों में हुई चोरीतथा चरागाह के अतिरिक्त अन्य भूमिखण्ड में हुई चोरी की क्षतिपूर्ति करनी पड़ती थी। याज ० (१।३०६)एवं कौटिल्य (६।१) के मत से राजा का प्रथम गुण है ‘महोत्साह' जो 'आभिगामिक' नामक गणों में गिना जाता है। धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र से सम्बन्धित सभी ग्रन्थों ने इस बात पर अधिक बल दिया है कि राजा को सतत कार्यशील रहना चाहिए, उसे किसी भी दशा में प्रमादी एवं भाग्यवादी नहीं होना चाहिए। महाभारत में१८ १८.(१) देवं प्रज्ञाविशेषेण को नितितुमर्हति । विधातृविहित मार्ग न कश्चिदतिवर्तते ।। आदि० (१।२४६२४७); देवं पुरुषकारेण को निवतितुमुत्सहेत् । उद्योग० (१८६।१८); देवमेव परं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम् । समा० (४७।३६); देवं पुरुषकारेण को वंचयितुमर्हति । देवमेव परं मन्ये पुरुषार्थो निरर्थकः ।। वन० (१७६।२७, यह बात अजगर द्वारा पकड़ लिये जाने पर भीम ने कही है); न हि दिष्टमतिकान्तुं शक्यं भूतेन केनचित् । दिष्टमेव ध्रुवं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम् ॥ उद्योग० (४०।३२); (२) दैवे पुरुषकारे च लोकोयं सप्रतिष्ठितः। आदि० (१२३.२१); जयस्य हेतुः सिद्धिहि कर्म देव च संश्रितम् । सभा० १६।१२; देवेचमानुषे चैव संयुक्तं लोककारणम् । उद्योग० (७।६५); न ह्य त्थानमृते देवं राज्ञामर्थ प्रसाधयेत्। साधारणं द्वयं ह्येतदैवमुत्थानमेवच ।। शान्ति०५६।१४; नहि देवेन सिध्यन्ति कार्याण्य केन सत्तम । न चापि कर्म मैकेन द्वाभ्यां सिद्धिस्तु योगतः।। सौप्तिक० २।३; (३) यत्नो हि सततं कार्यस्ततो देवेन सिध्यति । शान्ति० (१५३१५०); तत्रालसा मनुष्याणां ये भवन्त्यमनस्विनः । उत्थानं ते विगर्हन्ति प्राज्ञानां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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