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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास पाँच वर्ष राजा हर्षं प्रयाग में जाकर अपना सर्वस्व दान कर देता था (देखिए बील का ग्रन्थ "बुद्धिस्ट रेकर्ड स आदि", जिल्द 1, पृ० २१४, २३३ ) । शुक्रनीतिसार (१।३६८-३६६) में आया है कि राजा को विद्वान् व्यक्तियों की (खोज) में रहना चाहिए, उनकी शिक्षा के अनुसार उन्हें अधिकारी के रूप में नियुक्त करना चाहिए, उन्हें, जो कला एवं विद्या में बहुत आगे बढ गये हों, प्रति वर्ष सम्मानित करना चाहिए और विविध कलाओं तथा विद्याओं के उत्कर्ष के लिए समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। पाठकों को यह जानना चाहिए कि प्राचीन काल के राजा लोग इन वचनों का अक्षरशः पालन करते थे । ६५६ पश्चिमी देशों की भाँति भारत में भी राजा अवयस्क लोगों का रक्षक एवं अभिभावक माना जाता था। गौतम (१०१४८ - ४६ ) एवं मनु ( ८।२७) का कथन है कि जब तक लड़का वयस्क न हो जाय या गरुकुल से लौटकर न आ जाय तब तक राजा को उसकी सम्पत्ति की रक्षा करनी चाहिए । १६ यही बात अपने ढंग से बौधायनधर्मसूत्र (२२२२४३), वसिष्ठ (१६८-६), विष्णुधर्मसूत्र ( ३।६५), शंख-लिखित आदि ने भी कही है। नारद (ऋणादान, ३५ ) ने घोषित किया है कि १६ वर्षों तक अवयस्कता रहती है । मनु (८।२८-२६), विष्णुधर्मसूत्र ( ३।६५) का कहना है कि राजा को बन्ध्या स्त्रियों, पुत्रहीन स्त्रियों, कुलहीन स्त्रियों एवं रोगियों की सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिए। नारद का कहना है कि किसी स्त्री के पति या पिता के कुल में कोई न हो तो राजा को चाहिए कि वह उसकी सुरक्षा का प्रबन्ध करे । कौटिल्य (२1१ ) के मत से ग्राम के गुरुजनों का यह कर्तव्य है कि वे बालों (अवयस्कों) एवं मन्दिरों के धन की वृद्धि का प्रबन्ध करें । १७ राज का एक विशिष्ट कार्यं था यह देखना कि उचित मान के नाप-तोल के बटखरे आदि प्रयोग में लाये जाते हैं या नहीं। कौटिल्य (२०१६) ने नाप-तोल के बटखरों आदि के अध्यक्ष की चर्चा की है । वसिष्ठ ( १६ । १३) एवं मनु ( ८| ४०३) का कहना है कि नाप-तोल के यन्त्रों एवं बटखरों पर मुहरें लगनी चाहिए, प्रति छमाही पर उनकी पुनः जाँच होनी चाहिए जिससे गृहस्थों को लोग धोखा न दे सकें । याज्ञ० (२१२४० ) एवं विष्णुधर्मं सूत्र (५।१२२ ) ने उनके लिए कठिनातिकठिन दण्ड की व्यवस्था दी है, जो नाप-तोल के बटखरों, सिक्कों आदि में गड़बड़ी करते हैं या उन्हें अनधिकृत ढंग से बनाते हैं । इस विषय में देखिए नीतिवाक्यामृत ( पृ०६८ ) एवं अलबरूनी ( सचो द्वारा अनूदित ) की पुस्तक ( जिल्द १, अध्याय १५, जहाँ ११वीं शताब्दी के बटखरों की चर्चा की गयी है) । राजा का एक अन्य उत्तरदायित्व था चोरी न होने देना । केकय के राजा अश्वपति को इस बात का अभिमान था कि उसके राज्य में न कोई चोर था, न कोई कृपण व्यक्ति था और न कोई शराबी ( छान्दोग्योपनिषद् ५।११।५ ) । आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।१०।२६।६ - ८ ) का कथन है कि राजकर्मचारियों को चोरों से नगर की रक्षा एक योजन तक १६. रक्ष्यं बालधनमा व्यवहारप्रापणात् । समावृत्तेर्वा । गौ० १०।४८-४६ रक्षेद्राजा बालानां धनान्यप्राप्तव्यवहाराणां श्रोत्रियवीरपत्नीनाम् । शंख-लिखित, विवादरत्नाकर पृ० ५६८ में उद्धृत । बालधनं राज्ञा स्वधनवत्परिपालनीयम् । अन्यथा पितृव्यादिबान्धवा मयेदं रक्षणीयं मयेदं रक्षणीयमिति विवदेरन् । मेधातिथि (मनु ८।२७) । मेधातिथि ने मनु ( २८ ) की व्याख्या में कहा है--"यः कश्चिदनाथस्तस्य सर्वस्य धनं राजा यथावत् परिरक्षेत् । तथा चोदाहरणमात्रं वशादयः । १७. विनियोगात्मरक्षासु भरणे च स ईश्वरः । परिक्षीणे पतिकुले निर्मनुष्ये निराश्रये । तत्सपिण्डेषु वासत्सु पितृपक्षः प्रभुः स्त्रियाः । पक्षद्वयावसाने तु राजा भर्ता प्रभुः स्त्रियाः । मेधातिथि द्वारा मनु ( ५।३।२८ ) की व्याख्या में उद्भुत । बालद्रव्यं ग्रामवृद्धा वर्धयेयुराव्यवहारप्रापणात् । देवद्रव्यं च । कौटिल्य ( २1१ ) | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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