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प्रजा के प्रति राजा के कर्तव्य
६५५ का निरीक्षण करते थे, भूमि की माप (पैमाइश) कराते थे जैसा कि मिस्र (ईजिप्ट) में होता था, और कुछ लोग प्रमुख नहर से अन्य छोटी-छोटी नहरें निकलवा कर जल देने की व्यवस्था करते थे जिससे सबको यथोचित जल मिल जाय ।
कौटिल्य ने राष्ट्रीय विपत्तियों से, यथा-अग्निकाण्ड, बाढ़, रोग, दुभिक्ष, चूहे, जंगली हाथियों (या पशुओं), साँपों एवं भूत-प्रेतों से राज्य की रक्षा किम प्रकार की जाय, इस पर एक विशिष्ट अध्याय ही लिखा है। इन विपत्तियों से बचने के लिए मानवीय एवं धामिक क्रियाओं एवं कृत्यों के विषय में उन्होंने व्यावहारिक निर्देश भी दिये हैं। भिक्ष के समय राजा को बीज एवं भोजन देने की व्यवस्था करनी चाहिए, विपत्ति में फंसे लोगों की सहायता के लिए कुछ निर्माण कार्य आरम्भ कर देना चाहिए, राज-भाण्डार या धनिक लोगों के भाण्डार या मित्र राष्ट्रों के भाण्डार से अन्न लेकर बँटवाना चाहिए, धनिकों पर इतना कर लगाना चाहिए कि वे प्रचुर मात्रा में धन दे सकें या ऐसे देश को चल देना चाहिए जहाँ प्रचुर मात्रा में अन्न हो । राष्ट्रीय विपत्तियाँ 'ईति' के नाम से पुकारी गयी हैं और उनके छ: प्रकार हैं, यथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषक (चूहे), टिड्डी-दल ( शलभ), तोते तथा परदेशी राजाओं का बहुत पास में होना।१५
और भी देखिए कामन्दक (१३।२०, १३।६३-६४) । प्राचीन एवं मध्य काल के दुभिक्षों के विषय में बहुत-से संकेत प्राप्त हुए हैं । छान्दोग्योपनिषद् (१।१०।१-३) में आया है कि जब देश पर उपलवृष्टि (या टिड्डयों का आक्रमण हुआ) तो उपस्ति चाक्रायण को उच्छिष्ट भोजन करना पड़ा। रोमपाद के शासन-काल में अंग देश दुभिक्ष से आक्रान्त हो गया था (बालकाण्ड, अध्याय ६) । निरुक्त (२।१०) से पता चलता है कि राजा शन्तनु के समय में १२ वर्षों तक दुर्भिक्ष पड़ा था। महास्थान (प्राचीन पुण्ड नगर) में प्राप्त मौर्य-अभिलेख से पता चलता है कि दुर्भिक्षपीड़ित लोगों में 'गण्डक' नामक सिक्के एवं अन्न बाँटे गये थे (जे० ए० एस० बी०, १६३२, पृ० १२३) । और देखिए इस विषय में 'एनल्स आव बी० ओ० आर० इन्स्टीच्यूट', जिल्द ११, पृ० ३२; एपि० इण्डि०, जिल्द २२, पृ० १ एवं जे०ए०एस० बी०, जिल्द ७ (१६४१), भाग २, पृ० २०३ । राजतरंगिणी में कई बार दुर्भिक्षों की चर्चा हुई है (२।१७-५४, ५।२७०-२७८, ७१२१६) । मणिमेखले (अध्याय २८) ने दक्षिण भारत की काञ्चीपुरी में बारह वर्षों के दुर्भिक्ष का वर्णन किया है। सन् १३६६ ई० में दक्षिण भारत १२ वर्षों के उम भयंकर अकाल से ग्रस्त था जिसे 'दुर्गादेवी' की संज्ञा दी गयी है (देखिए प्रैण्ट डफ का ग्रन्थ 'हिस्ट्री आव दी मरहटास्' जिल्द १, पृ० ४३) । और देखिए, एपि० इण्डि०, जिल्द १५, पृ० १२।
हमने इस ग्रन्थ के भाग २ (अध्याय ३.७ एवं २५) में देख लिया है कि विद्वान ब्राहमणों की सहायता करना कवियों एवं ज्ञानवान लोगों की गोष्ठियां करना, शिक्षण संस्थाओं को भमि-दान देना तथा विद्या की उन्नति के लिए
नों में लगा रहना राजा का कर्तव्य था। वद्ध-हारीत (७१२२६-२३०) का कहना है कि राजा को चाहिए कि वह केवल तप में लीन विद्वान् ब्राह्मणों को ही अपने दानों का उचित पान समझे । कुछ ऐसे राजा भी हो गये हैं जो दान देने में सीमा का अतिक्रमण कर देते थे। युवान-च्वांग ने पुष्यभूति हर्षवर्धन के दया-दाक्षिण्य का वर्णन किया
१५. अतिवृष्टिरनावृष्टिर्मूषकाः शलभाः शुकाः । अत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः ॥ क्षीरस्वामी (अमरकोश की टीका में) एवं राजनीतिप्रकाश (पृ० ४४७); मिलाइए 'ईतयो न सन्ति मे ।' उद्योगपर्व (६१।१७); हुताशनो जल व्याधिभिक्षं मरकास्तथा । इति पञ्चविधं दैवं व्यसनं मानुषं परम् ॥ काम० १३।२० - बुधभूषण (पृ० ६०, श्लोक ३२६); अतिवृष्टि . . . शुकाः । असत्करश्च दण्डश्च परचक्राणि तस्कराः ॥ राजानीकप्रियोत्सर्गो मरकव्याधिपीडनम् । पशूनां मरणं रोगो राष्ट्रव्यसनमुच्यते ।। काम० १३॥६३-६४ = बुधभूषण (पु० ५६, श्लो० ३२२-३२३ )।
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