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धर्मशास्त्र का इतिहास
से कठोर नियम बने हुए थे। मनु (८१२३७), याज्ञ० (२।१६७) तथा मत्स्य ० (२२७/२४) ने भी गाँवों, बड़ी बस्तियों एवं नगरों के चतुर्दिक् चरागाह बनाने की व्यवस्था दी है। कौटिल्य ने पशुओं के अध्यक्ष पर पशुओं को श्रेणियों में विभाजित करने (यथा – बछड़े, युवा साँड़, पालतू, हल वाले बैल, गाड़ी वाले बैल, मांस वाले पशु, गाभिन गायें, दुधारू गायें आदि) का भार सौंपा था । मध्यक्ष को उन पशुओं पर चिह्न लगाने तथा उनको बही में लिख लेने की आज्ञा थी । जो लोग अनधिकृत ढंग से पशुओं को मार डालते थे वा चोरी करते थे उन्हें शरीर दण्ड देने की व्यवस्था दी गयी थी । कौटिल्य ने इस विषय में भी व्यवस्था दी है कि पशुओं को कितना भूसा, कितनी खली या कितना नमक दिया जाय और उनसे कितना काम लिया जाय । महाभारत ( वनपर्व २३६ । ४ ) से पता चलता है कि राज्य के पशुओं की गणना एवं प्रबन्ध में राजकुमारों को भी कार्यशील होना पड़ता था । और देखिए वनपर्व ( २४०/४-६ ) । महाभाष्य ( २, पृ० ४०१) ने भी पशु-धन एवं अन्न-धन पर देश के धन को आधारित माना है ।
कृषि पर विशेष ध्यान दिया जाता था । सभापर्व ( ५।७७) में राजा से कहा गया है कि वह राज्य के विभिन्न भागों में जलपूर्ण तड़ाग बनवाये और यह देखे कि कृषि केवल वर्षा जल पर ही निर्भर न रहे । मेगस्थनीज (मैकरिडिल, १, पृ० ३० ) का कहना है कि उसके समय में भारत में सिचाई का प्रबन्ध था और वर्ष में दो फसलें होती थीं । यही बात तै० सं० (५,१।७।३) में भी आयी है ( तस्माद् द्वि: संवत्सरस्य सस्यं पच्यते ) । वाज० सं० ( १८।१२) ने १२ प्रकार के अनाजों की सूची दी है--चावल, यव (जौ), गेहूँ, माष, तिल, मुद्ग, मसूर आदि और बृहदारण्यकोपनिषद् (६।३।१३) ने इस प्रकार के अन्नों (ग्राम्याणिधान्यानि ) का उल्लेख किया है । खारवेल राजा के हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि वह नहर जो नन्द राजाओं के १०३वें वर्ष ( ईसा पूर्व चौथी शताब्दी) में बनी थी ( खारवेल के) पाँचवें वर्ष में विस्तारित हुई ( एपि० इण्डि ०, जिल्द २०, पृ०७१) । रुद्रदामा ने बिना देगार लगाये राज्यकोष जूनागढ़ के पास सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार कराया था (एपि० इण्डि०, जिल्द ८, पृ० ३६ ) । इस सुदर्शन झील का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य एवं अशोक के प्रान्तपतियों ने किया था और वह कालान्तर में बाढ़ के कारण टूट-फूट गयी थी । वैदिक काल से ही सिंचाई की व्यवस्था होती रही है। ऋग्वेद (७।४६।२) ने नदियों, झरनों के अतिरिक्त खुदी हुई जल-प्रणालियों (नहरों) की भी चर्चा की है । दक्षिण भारत के शिलालेखों से पता चलता है कि पल्लव राजाओं एवं अन्य कुलों के राजाओं ने बहुत-से तड़ाग खुदवाये जिन पर उनके अथवा स्थल-विशेष के व्यक्तियों के नाम लिखे हुए थे । इनमें से बहुत-से तड़ाग आज भी विद्यमान हैं (देखिए साउथ इंडियन इंस्क्रिप्शंस, जिल्द २, भाग ३, पृ० ३५१; एपि० इण्डि०, जिल्द ४, पृ० १५२; साउथ इण्डियन इंस्क्रिप्शंस, जिल्द १, पृ० १५० एपि० इण्डि०, जिल्द ८, पृ० १४५) । कश्मीर के राजा अवन्तिवर्मा ( ८३३-८५८ ) के अभियन्ता ( इंजीनियर) सूय्य ने वितस्ता नदी को इस भांति Staff at arora खारी पहले २०० दीनारों में मिलती थी वह सिचाई की सुन्दर व्यवस्था के कारण ३६ दीनारों में मिलने लगी (राजतरंगिणी ५। ८४ - ११७ ) । कौटिल्य ( २।२४ ) ने जल की सहायता से अन्न बढ़ाने की कई विधियाँ दर्शायी हैं और उनसे प्राप्त कर की मात्राएँ भी बतायी हैं, यथा-शारीरिक परिश्रम वाले अन्न का कर उपज का भाग, कंधे से जल ढोकर सिंचाई करने से उत्पन्न अन्न का कर उपज का भाग, स्वाभाविक जलप्रपातों से जल चक्र द्वारा सिंचाई करने से कर उपज का भाग और नदियों, झीलों, तालाबों एवं कूपों की सिंचाई से उपज काभाग लिया जाता था । कौटिल्य ने ईख की खेती को कठिन माना है, क्योंकि उसकी प्राप्ति में व्यय अधिक होता है और आपत्तियाँ भी कम नहीं होतीं । अथर्ववेद ( १।३४।५ ) के काल में भी ईख को खेती होती थी । शुक्रनीति ० (४|४|६० ) के मत से जल की समुचित व्यवस्था करना राजा का परम कर्त्तव्य था, यथा— कूप, सीढ़ियों वाले जलाशय, तालाब, झीलें आदि खुदवाना । उसके कर्तव्यों एवं उनकी पूर्ति की ओर मेगस्थनीज की इंडिका भी संकेत करती है। मेगस्थनीज (मैकरिडिल, ऐंश्येष्ट इण्डिया, पृ० ८६ ) का कहना है कि कुछ ( राज्यकर्मचारी ) लोग नदियों
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