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राज्य-कर्मचारियों की नियुक्ति और परीक्षा
उद्धृत किया है और अपनी ओर से जोड़ा है---"राजा जिनसे घिरा रहता है, उन्हीं से दोषों की उत्पत्ति होती है और इन्हीं दोषों से एक दिन राजा का नाश हो जाता है। अतः राजा को नौकरों को रखने के पूर्व उनके ज्ञान, चरित्न एवं अच्छे कुल के विषय में लिख लेना चाहिए।१३ शुक्र (२।२४६-२४७) ने नौकरों की विश्वास्यता के विषय में निम्न महत्वपूर्ण बात कही है-"आपत्ति में पड़े हुए अपने अच्छे स्वामी को नहीं छोड़ देना चाहिए। एक बार भी सम्मान से जिसका नमक (अर्थात् भोजन) खा लिया, क्या उसके कल्याण के लिए सतत और (अवश्यकता पड़ने पर) शीघ्र चिन्ता नहीं करनी चाहिए?"१४इस प्रकार का भाव सामान्यतः राजभत्यों में विद्यमान था, यहाँ तक कि विदेशी एवं दूसरे धर्म के अनुयायी राजाओं के लिए भी भारतीय भृत्यों के मन में यही भावना विराजमान थी। नौकरों के चुनाव के विषय में राजनीतिप्रकाश (पृ० १७६) ने इन चार प्रधान बातों पर बल दिया है--"(१) शिक्षा, (२) शील (चरित्र), (३) कुल एवं (४) कर्म। जिस प्रकार सोने की परीक्षा चार प्रकार से की जाती है, यथा (१)तोलकर, (२) कसौटी पर कसकर, (३) काटकर एवं (४) गर्म करके, उसी प्रकार उपर्युक्त बातों से भृत्यों को परीक्षित किया जाना चाहिए।
हमने गत चौथे अध्याय में देख लिया है कि घुस लेनेबाले राज्य-कर्मचारियों की परीक्षा करने के लिए गुप्तचर नियुक्त थे । याज्ञ० (१।३३६,३३८,३३६) ने व्यवस्था दी है कि राजा को कायस्थों के चंगुल से प्रजा की रक्षा करनी चाहिए, गुप्तचरों द्वारा राज्य-कर्मचारियों के कार्यों की जाँच करानी चाहिए, जो लोग अच्छे आचरणयुक्त पाये जायें उनको प्रशंसित करना चाहिए, जो लोग असदाचरणशील पाये जायें उनको दण्डित करना चाहिए तथा जो लोग घस लेते हों उन्हें देश-निष्कासित कर देना चाहिए। इस विषय में और देखिए मनु (७।१२२-१२४), विष्णुधर्मोत्तर, पंचतन्त्र (१।३४३) एवं मेधातिथि (मनु ६२६४)। मेधातिथि ने व्याख्या की है कि उस राज्य को नाश का भय नहीं है जहाँ से कण्टक (दुष्ट लोग) निकाल बाहर किये जाते हैं और न्याय की दृष्टि में सब समान समझे जाते हैं। मेधातिथि ने यह भी लिखा है कि अधिकतर कण्टकों को रानी, राजकुमार, राजा के प्रिय पात्रों एवं सेनापति के यहाँ प्रश्रय मिलता है (मनु ६२६४) ।
पशु-पालन और कृषि अब हम प्रजा या जनता के प्रति राजा के उत्तरदायित्वों का वर्णन करेंगे। कौटिल्य (२०२६ एवं २।३४) से पता चलता है कि पश-पालन के लिए प्रयत्न किये जाते थे तथा चरागाहों के प्रबन्ध एवं सुरक्षा के लिए राज्य की ओर
१३. तथा च शखः । न हंसो गृध्रपरिवारः कामं तु गृध्रो हंसपरिवारः स्यात् । विश्वरूप (याज्ञ० ११३०५), शंखलिखितौ । न गृध्नुपरिवारः स्यात्कामं गृध्रो राजा प्रेयान्न हंसपरिवारो न हसो गृध्नुपरिवारः। परिवाराद्धि दोषाः प्रादुर्भवन्ति तेऽलं विनाशाय । तस्मात्पूर्वमेव तत्परिवारं लिखेच्छरुतशीलान्वयोपपन्नम् । राजनीतिप्र०, पृ० १८५। यह उद्धरण अशुद्ध-सा लगता है । सम्भवतः हमें 'हंसपरिवार' के पूर्व जो 'न' आया है उसे छोड़ देना चाहिए। वसिष्ठ (१६३२१-२६, फुहरर्स को प्रति, १६१६) में भी ऐसा ही पाठ आया है, किन्तु वह अशुद्ध है । देखिए राजधर्मकाण्ड, पृ० २२, जहाँ यह वाक्य शंखलिखित का कहा गया है । इसी अर्थ में पञ्चतन्त्र ने भी कहा है ( १।३०२)--'गृध्राकारोपि सेव्यः स्याद्धसाकारः सभासदैः । हंसाकारोपि संत्याज्यो गृध्राकारः स तैर्नृपः॥'
१४. आपद्गतं सुभर्तारं कदापि न परित्यजेत् । एकवारमप्यशितं यस्यान्नं ह्यादरेण च । तदिष्टं चिन्तयेन्नित्यं पालकस्याजसा न किम् ॥ शुक्रनीतिसार (२।२४६-२४७) ।
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