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________________ स्वायत्त ग्राम-सस्थाएँ ६५१ को ग्रामवासी, श्रेणियाँ, गण आदि मानते रहें । बाधाकाल या आपत्तिकाल के समय के उदाहरण ये हैं--अकाल के समय में, नक्षत्रों के शान्त्यर्थ यज्ञ करने के लिए समय बनना चाहिए, अर्थात् सब लोगों को कुछ न कुछ धन देना चाहिए, या जब लट-पाट का डर हो तो प्रत्येक घर से तगड़े एवं अस्त्र-शस्त्रधारी व्यक्ति मिलने चाहिए।" धर्मकार्य के विषय में भी बृहस्पति ने उदाहरण दिये हैं--"ग्रामवासियों को यह लिखित कर लेना चाहिए कि उन्हें क्या-क्या करना है, यथा सभागृह का जीर्णोद्धार, यात्रियों के लिए पानी पिलाने का प्रबन्ध अर्थात पौसरे का निर्माण, मन्दिर, तालाब, बाटिका का निर्माण, दरिद्रों एवं असहायों के (उपनयन, अन्त्येष्टि क्रिया आदि) संस्कार की व्यवस्था, यज्ञ के लिए दान-भेट, अकालपीड़ित कुलों को आने से रोकना (आदि) । इस प्रकार की परम्पराओं की मर्यादा बँधनी चाहिए और ग्रामों को इनका आदर करना चाहिए। समर्थ होते हुए भी जो लोग ऐसा नहीं करते हों उनका धन छीनकर उन्हें (ग्राम से) निष्कासित कर देना चाहिए।" बहस्पति का कहना है; कुलों, श्रेणियों, गणों के प्रमुखों (अध्यक्षों), पुरों एव दुर्गों के निवासियों को पापकमियों को दण्डित करने का अधिकार है, वे दोनों प्रकार के दण्ड (अर्थात् भर्त्सना एवं निष्कासित करना) दे सकते हैं और उनके इस प्रकार के कार्य (यदि वे नियमानुकल किये गये हों) राजा द्वारा अनुमोदित होने चाहिए, क्योंकि उनका यह अधिकार ऋषियों द्वारा नियोजित है।११ कौटिल्य (३।१०)का कहना है कि यदि किसी को ग्राम-मखिया या ग्राम बिना किसी अपराध के (उसने चोरी या बलात्कार न किया हो तो भी) निकाल दे तो उन्हें २४ पण का दण्ड देना पड़ता है। उपर्युक्त बातों से स्पष्ट होता है कि स्थानीय ग्राम-शासन चलता रहता था, केन्द्र में चाहे जो भी शासन या शासक हो उससे उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था, ग्राम का स्थानीय शासन स्वतः संचालित था । कर, आक्रमण-रक्षा आदि बातों के भतिरिक्त केन्द्रीय शासन किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करता था, केवल एक सामान्य नियन्त्रण मात्र था। ग्राम-संस्थाएँ मानो छोटे-छोटे राज्य के रूप में कार्य करती थीं । केन्द्रीय सरकार ने अपने बहुत-से अधिकार ग्राम-संस्थाओं को दे दिये थे । बहुत-से 'माल-फौजदारी के मुकदमे भी उनके अधिकार में थे, जैसा कि हम आगे देखेंगे। अन्य बातों की जानकारी के लिए देखिए डा० आर० सी० मजुमदार कृत "कॉरपोरेट लाइफ इन ऐंश्येण्ट इण्डिया",अध्याय २, पृ० १३५ एव फिक (पृ० १६१) । जिस प्रकार पूरे ग्राम की एक सामान्य व्यवस्था थी, उसी प्रकार वहां की श्रेणियों एवं गणों के कार्य-परिचालन के लिए बहुत-से नियम एवं रूढियाँ थीं। कौटिल्य (१।११) ने काम्भोज एवं सुराष्ट्र के क्षत्रियों की श्रेणियों की ओर संकेत किया है और लिखा है कि क्षत्रिय कृषि-कर्म या आयुध द्वारा (लड़ने का व्यवसाय करके) अपनी जीविका चलाते थे (...काम्भोजसुराष्ट्रक्षत्रियश्रेण्यादयो वार्ताशस्त्रोपजीविनः)। कौटिल्य (३।१४) ने भृत्यों के संघ (संघभृताः) की भी चर्चा की है । मनु (१।११८) ने गणों का उल्लेख किया है । और देखिए मनु (८।४१), याज्ञ० (२३१६२)। नारद (समयस्यानपाकर्म, २।६) एवं बृहस्पति (वीरमिनोदय, व्यवहार में उद्धृत) ने श्रेणी, गण आदि के विषय में व्यावहारिक चर्चाएँ की हैं।१२ नारद का कहना है कि पाषण्ड-सम्प्रदायों, नैगमों (वणिकों), श्रेणियों तथा ११. कुलश्रेणिगणाध्यक्षाः पुरवुर्गनिवासिनः । वाग्धिग्दमं परित्यागं प्रकुर्युः पापकारिणाम् ॥ तैः कृतं च स्वधर्मेण निग्रहानुग्रहं नृणाम् । तद्राज्ञोप्यनुमन्तव्यं निसृष्टार्था हि ते स्मृताः ॥ बृहस्पति (अपराकं पृ० ७६४, स्मृति २, पृ० २२५, सरस्वतीविलास पृ० ३२६ द्वारा उद्धृत उद्धरणों में कहीं-कहीं हेर-फेर है)। १२. पाषण्डिनगमश्रेणीपूगनातगणादिषु । संरक्षेत्समय राजा दुर्गे जनपदे तथा ॥ यो धर्मः कर्म यच्चैषामुपस्थानविषिश्व यः । यच्चैषां वृत्त्युपादानमनुमन्येत तसथा ॥ नानुकूलं च यद्राजा प्रकृत्यवमतं च यत् । बाधक च यदर्थानां तत्तन्यो विनिवर्तयेत् ॥ मिथः संघातकरणमहित शस्त्रधारणम । परस्परोपघातं च तेषां राजा न मर्षयेत् ॥ पृथग्गणांच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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