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धर्मशास्त्र का इतिहास उसका पद वंशपरम्परानुगत बनकर रह गया (देखिए एपि० इण्डि०, जिल्द ७, पृ० १७७, १८८, १८६ । शुक्र (२!१२०-१२४) का कहना है कि गांव में छ: प्रकार के अधिकारी और (२१४२८-४२६) उनकी निम्नोक्त जातियां थीं-- साहसाधिपति (साहस करने या बल प्रयोग करने वाले के द्वारा हए अपराधों पर दण्ड देने वाला) क्षत्रिय था, प्रामनेता ब्राह्मण था, भागहार (राजकीय कर उगाहने वाला) क्षत्रिय था, लेखक (लिपिक) कायस्थ था, शुल्कग्राह (चुंगी एकन्न करने वाला) वैश्य था तथा प्रतिहार (ग्राम-सीमा पर रक्षा करने वाला) शुद्र था। शक (२।१७०-१७५) ने इन छ: अधिकारियों के कार्यों का भी वर्णन किया है, यथा--मुखिया (ग्रामनेता) को डाकुओं, चोरों एवं राज्य-कर्मचारियों से ग्रामवासियों की पिता के समान रक्षा करनी पड़ती थी; भागहार को वृक्षों को रक्षा करनी पड़ती थी, लेखक के लिए अंकन एवं गणना करने में दक्ष होना एवं कई भाषाओं का ज्ञान रखना आवश्यक था, प्रतिहार को शरीर से स्वस्थ एवं तगड़ा, अस्त्र-शस्त्र-विद्या में निपण, विनीत तथा ग्राम के लोगों को यथोचित आदर देने वाला होना पड़ता था और शुल्कग्राह को ऐसी व्यवस्था रखनी या करनी पड़ती थी कि चुगी के कारण उन्हें अपने माल के विक्रय में घाटा न लगे । कौटिल्य (३।१०) के कथन से पता चलता है कि ग्रामिक या ग्रामनेता या ग्राम-मुखि या लोगों पर अर्थ-दण्ड भी लगा सकता था। जब मुखिया गाँव के काम से कहीं बाहर जाता था तो बारी-बारी से गाँव का कोई-न-कोई जन उसके साथ अवश्य जाता था, जो ऐसा नहीं करता था उसे एक पण या पण का दण्ड देना पड़ता था। इसी प्रकार गाँव में कोई खेल-तमाशा (प्रेक्षा) होने पर यदि कोई व्यक्ति प्रबन्ध में सहयोग नहीं करता था तो उसे खेल देखने नहीं दिया जाता था, किन्तु यदि वह चोरी से छिपकर खेल देख लेता था तो उसे दण्डित होना पड़ता था। ग्रामों में, विशेषतः कर्नाटक एवं दक्षिण भारत में तथा ब्रह्मदेय दान-भूमि (विद्वान् ब्राह्मणों को जो भूमि दान में दी जाती थी उसे ब्रह्मदेय कहा जाता था) में ग्राम सभाएँ ही स्थानीय शासन करती थीं। इस विषय में देखिए एपि०इण्डि०, जिल्द २०, पृ०५६; श्री गोपालन की पुस्तक "हिस्ट्री आव दी पल्लवज आव काञ्ची", १०६३, १५३-१५७; एन्युअल रिपोर्ट आव अर्यालॉजिकल सर्वे आव इण्डिया, १६०४. ५, पृ० १३१; एपि० इण्डि०, जिल्द २४, पृ० २८, जिल्द २३, पृ० २२; श्री राइस डेविड्स की पुस्तक 'बुद्धिस्ट इण्डिया' पृ० ४५-५१ । पाणिनि एवं उसकी टीका काशिका से पता चलता है कि गाँवों में कुछ शिल्पकार, यथा बढ़ई, राज, नाई, घमार, धोबी आदि होते थे जो स्थायी रूप से नियुक्त थे और वर्ष में उन्हें अनाज का अंश नियमत: मिलता रहता था। यह प्रणाली आज भी लागू है, किन्तु धीरे-धीरे नयी अर्थ-व्यवस्था एवं सामाजिक व्यवस्था के कारण परिवर्तन के चक्र घूमते जा रहे हैं। पाणिनि (६।२।६२) की टीका में काशिका द्वारा प्रयुक्त उदाहरण हैं ग्रामनापित (गाँव का नाई), प्रामकुलाल (गाँव का कुम्हार)। पाणिनि (५।४।६५) के “ग्रामकोटाभ्यां च तक्ष्णः" सूत्र से पता चलता है कि बढ़ई भी गाँव का नौकर था।
बृहस्पति ने स्थानीय ग्राम-शासन के विषय में महत्वपूर्ण वातें उल्लिखित की हैं।१०"ग्रामों की श्रेणियों एव गणों के समूह को समय (निश्चित करार) कर लेना चाहिए। आपत्तिकाल एवं धर्मकार्य में ऐसे समय को कार्यान्वित करना चाहिए। समूहों के सहायकों के रूप में दो, तीन या पाँच व्यक्तियों की नियुक्ति होनी चाहिए जिनकी सम्मति
१०. ग्रामश्रेणिगणानां च संकेतः समयक्रिया । बाधाकाले तु सा कार्या धर्मकायें तथैव च ॥ द्वौ त्रयः पञ्च वा कार्याः समूहहितवादिनः । कर्तव्यं वचनं तेषां ग्रामश्रेणिगणादिभिः ॥ सभाप्रपादेवगहत डागारामसंस्कृतिः। तथानाथदरिद्राणां संस्कारो यजनक्रिया ॥ कुलायननिरोधं च कार्यमस्माभिरंशतः । यत्रतल्लेखितं पत्र धा सा समयक्रिया ॥ पालनीया समस्तैस्तु यः समर्थो विसंवदेत् । सर्वस्वहरणं दण्डस्तस्य निर्वासनं पुरात् ।। बृहस्पति, अपराक (पृ० ७६२. ६३) एवं स्मृतिचन्द्रिका (२।२२२-२३, व्य० प्र० पृ० ३३२) द्वारा उद्धृत ।
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