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स्वायत्त ग्राम-संस्थाएँ उपर्युक्त विवेचन से प्रकट होता है कि कौटिल्य के समय की बहुत-सी बातें आधुनिकतम प्रणाली का स्मरण दिलाती हैं। शासन-कार्य की जटिल व्यवस्था तथा उच्च या निम्न पदाधिकारी-गण आदि आधुनिक राज्य की विधियों के सूचक हैं।
स्वायत्त ग्राम-संस्थाएँ स्थानीय शासन के विषय में कुछ कहना आवश्यक है। 'ग्राम' शब्द ऋग्वेद (१।११४।१) में भी आया है। ऋग्वेद (५०५४१८) में आया है--"ग्रामजितो यथा तरः" अर्थात् 'जिस प्रकार ग्रामों को जीतने वाले नायक (या मनुध्य)'। और भी देखिए ऋग्वेद (१०।६२।११, १०।१०७५) । तैत्तिरीय संहिता (२।५।४।४) में आया है-- "विद्वान् ब्राह्मण, ग्रामणी (ग्राम-प्रमुख या मुखिया) एवं गजन्य (लड़नेवाला) तीनों समृद्धिशाली हैं।" इसी प्रकार देखिए तै० ब्राह्मण (१।१।४।८), शतपथ ब्राह्मण (१४४१६) आदि, जहाँ ग्राम से सम्बन्धित मुख्य व्यक्ति अर्थात् ग्रामणी का उल्लेख हुआ है। हमने यह भी देख लिया है कि ग्रामणी की गणना रत्नियों में होती थी ( देखिए गत अध्याय ४) । 'ग्राम' का अर्थ 'गाँव ही नहीं था, सम्भवतः वह नगर का भी द्योतक था। ग्राम का मुखिया 'ग्रामणी', 'ग्रामिक', 'ग्रामाधिपति' (मनु ७।११।११६, कौटिल्य ३।१०), ग्रामकूट एवं पट्टकिल (एपि० इण्डि०, जिल्द ७, पृ.० ३६, १८३, १८८, जिल्द ११, पृ० ३०४, ३१०; इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द ६, पृ० ५१, ५३, जिल्द १८, पृ० ३२२) । पूना जिले के एक अभिलेख (१३वीं शताब्दी) से पता चलता है (एपि० इण्डि०, जिल्द ७, पृ० १८३)कि 'पकिल' शब्द आगे चलकर 'पटेल' हो गया और बिगडते-बिगड़ते आज कापाटिल (पटेल) बन गया। इसी प्रकार 'ग्रामकट' शब्द बिगड़कर 'गावण्ड' हो गया (एपि. इण्डि०, जिल्द ७, प०१८३)। पैठीनसि को उद्धत कर अपराक (प० २३६) ने लिखा है कि ग्रामकूट का भोजन ब्राह्मण नहीं खा सकता। गाथासप्तशती में ग्रामणी तथा उसके पुत्र के प्रेम का वर्णन मिलता है (१।३०-३१, ७।२४)। और देखिए कामसूत्र (५।५।५)। शुक्र ० (१।१६३) के अनुसार एक ग्राम विस्तार में एक कोस तक होता था और उससे १००० (चाँदी के) कार्षापण कर के रूप में प्राप्त होते थे। ग्राम का अर्ध भाग पल्ली तथा चौथाई भाग कुम्भ कहलाता था। हेमाद्रि (दानखण्ड, पृ० २८८) ने मार्कण्डेय-पुराण को उद्धृत कर पुर, खेट, खर्वट एवं ग्राम की परिभाषाएँ दी हैं। याज्ञ० (२०६७) ने चरागाह के विस्तार को ध्यान में रखकर ग्राम, खर्वट एवं नगर का अन्तर बताया है। बौधायनसूत्र (२।३।५८ एवं ६०) में आया है कि धार्मिक ब्राह्मण को नगर में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि वहाँ शरीर पर धूल जम जाती है और मुख एवं आँखों में चली जाती है, उसे जल, ईधन, भूसा, समिधा, कुश, पुष्प से युक्त एवं धनिक, परिश्रमी आर्यों वाले ग्राम में रहना चाहिए । सभापर्व (५।८४) में ग्राम के पांच प्रकार के अधिकारियों का उल्लेख हुआ है।
उपर्युक्त विवेचन के उपरान्त यह कहा जा सकता है कि ग्राम का अधिकारी वैदिक काल का रत्नी था, आगे चलकर वह केवल ग्राम का प्रभावशाली व्यक्ति मात्र रह गया और कालान्तर में राजा द्वारा नियुक्त होने लगा और
पावहीनां भृति त्वार्ते दद्यात् त्रैमासिकों ततः। पञ्चवत्सरभृत्ये तु न्यूनाधिक्यं यथा तथा ॥ पाण्मासिकों तु दीर्ति तदूध्वं न च कल्पयेत् । नव पक्षार्धमार्तस्य हातव्याल्पापि वै भृतिः ।। चत्वारिंशत् समा नीताः सेवया येन व नृपः । ततः सेवां विना तस्मै मृत्यथं कल्पयेत्सदा ॥...स्वामिकायें विनष्टो यस्तत्पुत्रे तद्भुति वहेत् । यावद् बालोन्यथा पुत्रगुणान् दृष्ट्वा भृति वहेत् ।। शुक्रनीति० (२।४०६-४१०, ४१३) ।
६. यथा शमसद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन्ननातुरम् । ऋग्वेद (१।११४।१) ।
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