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________________ ६४८ धर्मशास्त्र का इतिहास एक ग्राम का भूमि-कर तथा एक सहस्र ग्रामों के बड़े अधिकारी को एक नगर का कर मिलना चाहिए। मेधातिथि का कह्ना है कि मनु के ये शब्द केवल सुझाव के रूप में हैं और अधिकारियों की स्थिति एवं उत्तरदायित्व के द्योतक हैं । और देखिए शान्ति० (८७।६।८)। कौटिल्य ने राजकर्मचारियों एवं अन्य नौकरों के वेतन का व्यौरा यों दिया है-- (मंवियों, पुरोहित आदि के वेतन का ब्यौरा गत अध्याय में दिया जा चुका है ।) दौवारिक, अन्तवंशिक (स्त्र्यध्यक्ष), प्रशास्ता, समाहर्ता एवं सन्निधाता को २४,००० पण; राजकुमारों (युवराज को छोड़कर), राजकुमारों की दाई (उपमाता), नायक, न्याय के अध्यक्ष (नगर के--पौरव्यावहारिक), कर्मान्तिक (राजकीय निर्माण-शालाओं के अध्यक्ष), मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों, राष्ट्रपाल (प्रान्तीय शासक), अन्तपाल को १२,००० पण; श्रेणियों के प्रधानों, हस्तिसेना, अश्वसेना, रथ-सेना के प्रमुखों तथा प्रदेष्टाओं को ८००० पण, पदातियों (पैदल), रथों, हस्तियों, वन-संपत्ति, हस्तिवनों के अध्यक्षों (सेनापति से नीचे के लोगों) को ४००० पण; रथ हाँकनेवाले अर्थात् अनीक,सेना-वैद्य,अश्व-प्रशिक्षक, बढ़इयों, योनिपोषकों (?) को २००० पण; भविष्यवक्ता, ज्योतिषी, पुराण-पाठक, सूत, मागध (भाट), पुरोहित के (सहायकों) एवं अध्यक्षों को १००० पण ; प्रशिक्षित पदातियों, अंककों (गणकों) एवं लिपिकों को ५०० पण संगीतज्ञों को २५० पण, दुन्दुभि-वादकों को ५०० पण ; कारुओं एवं शिल्पकारों को १२० पण ; दोपायों एवं चौपायों के नौकरों, छोटे-मोटे भृत्यों, राजा के पार्श्व-भृत्यों, रक्षक एवं बेगार लगाने वालों (विष्टि) को ६० पण; कार्ययुक्तों (थोड़े समय के लिए युक्त लोगों), पीलवान, बच्चों (माणवक, वस्त्रपरिधान सँभालने वाले लड़कों), पर्वत खोदनेवालों, सभी नौकरों, शिक्षकों एवं विद्वान् लोगों को पूजावेतन (आनरेरिएम) मिलता था जो उन्हें उनके गुणों के अनुसार ५०० मे लेकर १००० पण तक मिलता था; राजा के रथ कार को १००० पण, पाँच प्रकार के गुप्तचरों को १००० पण (देखिए गत पृष्ठ ६३७); ग्राम के नौकरों (यथा धोबी),सत्रियों, विष देने वालों, अवधूतिनियों को ५००पण; घुमक्कड़ गुप्तचरों को ३०० या अधिक (परिश्रम के अनुसार) पण दिये जाते थे। एक सौ या एक सहस्र नौकरों के दलों के अध्यक्षों को अपने अन्तर्गत लोगों के भक्त (जीविका), नकद धन (वेतन), अग्रिम धन, नियुक्ति या स्थानान्तरण आदि की व्यवस्था करनी पड़ती थी। राजा के व्यक्तिगत नौकरों, दुर्गों के रक्षकों का स्थानान्तरण (बदली) नहीं किया जाता था। शुक्रनीतिसार (१।२११) का कथन है कि वेतन पण के रूप में दिया जाना चाहिए न कि भूमि के रूप में, यदि राजा किसी को भूमि दे भी दे तो वह लेने वाले के केवल जीवन तक ही रह सकेगी, अर्थात् उसके पुत्र या कुल के लोग उसके स्वामी नहीं हो सकते। किन्तु कौटिल्य (२।१) ने लिखा है कि विभिन्न विभागों के अध्यक्षों, गणकों, गोपों, स्थानिकों, मेना के अधिकारियों, वैद्यों, अश्वप्रशिक्षकों को भूमि दी जा सकती है, किन्तु ये उसे बेच या धरोहर में रख नहीं सकते । शुक्र ने सेना के बहुत-से अधिकारियों के नाम दिये हैं (२।११७-२०४) । शुक्र (४।७।२४-२७) के मत से यदि राजा की आय प्रति वर्ष एक लाख मुद्रा हो तो अधिकारियों को वेतन दिया जा सकता है। कौटिल्य ने पूर्व सेवार्थ वत्ति एवं प्रदान (पेंशन एवं अनुग्रह-धन) देने की भी व्यवस्था दी है। कौटिल्य का कहना है-"कार्य करते हुए मर जाने पर कर्मचारियों के पूवों एवं स्त्रियों को जीविका एवं पारिश्रमिक की व्यवस्था की जाय। मरने वाले अधिकारियों के छोटे बच्चों एवं रोगी संबंधियों को कृपा-धन मिलना चाहिए । अन्त्येष्टि-क्रिया, रोग, सन्तानोत्पत्ति के समय धन एवं आदर मिलना चाहिए ।" और देखिए महाभारत (सभा० ५।५४), शुक्र० (२।४०६-४११) । मीवितार्थिनाम् । चतुर्गवं गृहस्थानां द्विगवं ब्रह्मघातिनामिति हारीतोक्तम् । धर्महलं ग्राह्यं गृहस्थहलं वा । सर्वज्ञनारायण (मनु० ७।११६) । ८. कच्चिद् दारान्मनुष्याणां तवार्थे मृत्युमीयुषाम् । व्यसनं चाभ्युपेतानां विभर्षि भरतर्षभ । सभा० ५।५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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