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अवान्तर पदाधिकारी
जहाजी मार्गों का निरीक्षण करता था, मल्लाहों, व्यापारियों आदि पर कर लगाता था। इस अध्यक्ष को यह देखना पड़ता था कि नौका-मार्गों से शत्रुओं के जहाज या नौकाएँ तो नहीं आ-जा रही हैं। पशुओं के अध्यक्ष को गायों, बैलों, भैसों आदि के पालन-पोषण आदि की चिन्ता करनी पड़ती थी। अश्वाध्यक्ष को घोड़ों की जाति, वय, रंग आदि गुणों की पहचान रखनी होती थी। कौटिल्य के मत से कम्बोज, सिन्धु, आरट्ट (पश्चिमी पंजाब, अब पाकिस्तान) तथा बनायु (पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त) नामक स्थानों के घोड़े उत्तम माने जाते थे, बालीक, पापेय, सौवीर (पूर्वी सिन्ध तथा पश्चिमी राजस्थान)एवं तैतिला के घोड़े मध्यम श्रेणी के तथा अन्य स्थानों के निकृष्ट श्रेणी के माने जाते थे। हस्त्यध्यक्ष को उन जंगलों की रक्षा करनी पड़ती थी जहाँ हाथी पाये जाते थे । उसे हाथियों को पकड़ने, प्रशिक्षण देने, खिलाने आदि का प्रबन्ध करना पड़ता था। रथों एवं पदातियों के अध्यक्ष को रथ-विभाग एवं पैदल सैनिकों के विभाग का निरीक्षण करना पड़ता था। पदाति-सेना में ६ श्रेणियाँ थीं। मुद्राध्यक्ष को देशी एवं परदेशी लोगों को मुद्रा (अनुज्ञापत्र ) देने की व्यवस्था करनी पड़ती थी। चरागाहों के अध्यक्ष भी मुद्रा देखते थे । एक माषक देने पर मुद्रा मिलती थी, और जो बिना मुद्रा या पास के आता या जाता था तो उसे पकड़े जाने पर १२ पण अर्थ-दण्ड देना पड़ता था। चरागाह के अध्यक्ष लोग चोरों एवं शत्रुओं के आगमन की सूचना शंख बजाकर, मनुष्य भेजकर या तोतों के पैरों में संदेश आदि बाँधकर या आग-धुआँ करके देते थे। नागरक लोग राजधानी या बड़े-बड़े नगरों की व्यवस्था रखते थे। गोप (नागरक के अन्तर्गत) २० या ४० कुलों की व्यवस्था करता था और स्थानिक नगर के चार भागों में किसी एक की रक्षा करता था (पूरे नगर को चार भागों में बाँट दिया जाता था और प्रत्येक भाग में एक स्थानिक होता था)। याज्ञ० (२११७३) का स्थानपाल कौटिल्य का स्थानिक ही है । सम्भवतः स्थानिक से ही आधुनिक शब्द थाना बना है। गोप एवं स्थानिक पुरुषों एवं नारियों की जाति, मोन, नाम, वृत्ति, आय-व्यय का ब्यौरा रखते थे । दातव्य संस्थाओं के व्यवस्थापक आदि नास्तिकों, धर्म-विरोधियों एवं यात्रियों की सूची भेजा करते थे। उपर्युक्त बातों के विषय में देखिए मनु (७/१२१), शान्ति० (८७।१०), कामसूत्र (५२५७-१२) । गुप्त-काल के प्रान्तीय शासन के विषय में देखिए एपि० इण्डि० (जिल्द १५, पृ० १२७-१२८)।
एक, दस या इससे अधिक ग्रामों वाले राजकर्मचारियों के वेतन के विषय में मनु (७११८-११६) का कहना है"ग्राम के मुखिया को वे ही वस्तुएँ मिलनी चाहिए, जो प्रति दिन राजा को मिलती हैं, यथा भोजन, पेय पदार्थ, ईधन आदि । दस ग्रामों के अधिकारी को एक कल",बीस ग्रामों से अधिक वाले को पाँच कल, एक सौ ग्रामों के अधिकारी को
७. 'प्रत्यहम्'(प्रति दिन)शब्द में वह भूमि-कर, जो वर्ष में एक बार या जो किसी विशिष्ट समय में लगाया जाता है, सम्मिलित नहीं है। इसी प्रकार ‘भोजन, पेय पदार्थ, इंधन आदि' में पशु,धन आदि सम्मिलित नहीं हैं। 'कुल' शम्द यहाँ पर पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ हो सकता है 'इतनी भूमि जो एक कुल (कुटुम्ब) की जीविका चला सके ।' किन्तु मनु के टीकाकारों ने एक दूसरा अर्थ भी किया है। सर्वज्ञनारायण (मनु ७।११६) ने उद्धरण देकर समझाया है कि कुल का तात्पर्य है "दो हल"। उसने एवं कुल्लूक ने हारीत को उद्धृत कर बताया है कि एक हल में (धर्म के अनुसार) आठ बैल लगते हैं, ६ बैल वाले हल से वे खेती करते हैं जो केवल जीविका-निर्वाह चाहते हैं, गृहस्थ ४ बल वाले हल रखते हैं, किन्तु वे जो लोभी हैं और गम्भीर पाप करना चाहते हैं एक हल में केवल दो बैल जोतते हैं। अतः कुल का अर्थ है इतनी भूमि, जो दो हलों द्वारा, चाहे उनमें ८ बैल लगे हों या ६ बैल या ४ बैल, जोती जाती है। हल में ६ या ८ या १२ बैल लगते हैं-ऐसा अथर्ववेद (६१६१११) एवं ते०सं० (२२३५२) में भी आया है। 'हलं तु विगुणं कुलमिति वचनाव द्वाभ्यां हलाभ्यां या कृष्यते भूस्तां भुजीतेत्यर्थः । हलमानं च-अष्टागवं धर्महलं षड्गवं
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