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धर्मशास्त्र का इतिहास
को सुरक्षित रखना पड़ता था । पण्याध्यक्ष ( २।१६ ) को विभिन्न मार्गों से आयी हुई व्यापारिक सामग्रियों की परख, वस्तुओं की आवश्यकता तथा अभाव आदि के लिए प्रबन्ध करना पड़ता था ।
कूप्याध्यक्ष (२।१७) को वन के रक्षकों द्वारा वन की सामग्रियाँ एकत्र करानी पड़ती थीं, यथा लकड़ी, बाँस, लताएँ, रेशे वाले पौधे, टोकरी बनाने वाले सामान, ओषधियाँ, विष, पशु चर्म आदि। आयुधागाराध्यक्ष ( २०१८ ) को अस्त्र-शस्त्र, रथ-चक्र, यन्त्र आदि युद्ध सामग्रियों एवं आक्रमण-रक्षा के साधनों के निर्माण के लिए अनुभवी नौकर रखने पड़ते थे । नाप-तोल के अध्यक्ष को लोहे या मगध एवं मेकल पर्वत से प्राप्त पत्थरों से आधे माक से लेकर एक सौ सुवर्णों तक के बटखरों का निर्माण कराना पड़ता था । शुल्काध्यक्ष ( २।२१) को राजधानी के प्रमुख द्वार के पास एक चुंगी घर बनवाना पड़ता था और अपने अन्तर्गत चार-पाँच कर्मचारियों को चुंगी एकत्र करने के लिए रखना पड़ता था, जो बाहर से आने वाले सामानों की तथा व्यापारियों की सूची रखते थे । कपड़ा तथा अन्य प्रकार के परिधानों के अध्यक्ष ( २।२३ ) को ऐसे लोगों द्वारा सामान तैयार कराना पड़ता था जो अन्य कार्य करने में अशक्त थे, यथा विधवाएं, लँगड़े-लूले, लड़कियाँ, अवधूतिनें (अर्थ-दण्ड देने के लिए), वेश्याओं की माताएँ, राजप्रासाद की पुरानी नौकरानियाँ, देवदासियाँ (जो अब मन्दिरों में नृत्य-संगीत के योग्य नहीं थीं ) । यह अध्यक्ष घर से न निकलने वाली स्त्रियों, परदेश गये हुए पति की पत्नियों, लूली- लँगड़ी स्त्रियों, अविवाहित एवं उन स्त्रियों के लिए, जो कार्य करके अपना निर्वाह करती थीं, काम देने दिलाने की व्यवस्था करता था। वह अपने विभाग की महिला-नौकरानियों द्वारा कताई बुनाई का प्रबन्ध करता था । यदि अध्यक्ष इन नारियों की ओर घूरता था, या उनसे कार्य के अतिरिक्त कोई और बात करता था तो उसे अर्थ दण्ड दिया जाता था । इस विवेचन से स्पष्ट है कि राज्य घरेलू या कुटीर उद्योग की सहायता करता था। इस कताई-बुनाई वाले अध्यक्ष के कई अधिकार थे 1 वह अर्थ-दण्ड एवं शरीर दण्ड भी दे सकता था, यथा यदि कोई नारी पारिश्रमिक लेने के उपरान्त कार्य न करे, तो वह उसका अँगूठा काट ले सकता था या अँगूठे तथा तर्जनी को एक में बाँध सकता था । सीताध्यक्ष को कृषि शास्त्र एवं वृक्षायुर्वेद के विशेषज्ञों से सहायता लेकर समय पर सब प्रकार के अन्नों, फलों, फूलों, शाकों, कंदों, सन, कपास आदि को एकत्र करना पड़ता था और वह दासों, श्रमिकों या बन्दियों से अर्थ-दण्ड के स्थान पर कार्य कराता था । आसव या मदिरा के अध्यक्ष को राजधानी तथा देहात में मदिरा व्यवसाय का प्रबन्ध करना पड़ता था । उसे यह देखना होता था कि बिना अनुमति (लाइसेंस) के कोई मदिरा व्यापार न कर सके, कोई व्यक्ति मदिरा सेवन में सीमा का अतिक्रमण न कर सके, आदि-आदि। शुक्रनीतिसार ( ४१४१४३ ) ने तो दिन में किसी को भी मदिरा पीने के लिए वर्जना की है। सूनाध्यक्ष (२।२६) को मांस आदि का प्रबन्ध करना पड़ता था और देखना पड़ता था कि कोई व्यक्ति राजकीय सुरक्षा के अन्तर्गत हरिण या किन्हीं अन्य पशुओं, पक्षियों, मछलियों आदि वाले स्थानों में शिकार न खेलने पाये । गणिकाध्यक्ष का वर्णन २।२७ में हुआ है। हमने वेश्यावृत्ति पर पहले ही पढ़ लिया है (देखिए भाग २ अध्याय १६) । कौटिल्य का कहना है कि एक गणिका को एक सहस्र पण मिलते थे । उसे सुन्दर, युवा एवं ६४ कलाओं में निपुण होना चाहिए ( कामसूत्र १।३।१६ ) । कौटिल्य का कहना है कि यदि वह देश छोड़ दे तो उसकी पुत्री या बहिन को उसका स्थान लेना पड़ता था । यदि उसके पास कोई पुत्री या बहिन नहीं होती थी तो उसकी सम्पत्ति राज्य द्वारा ले ली जाती थी और उसके पुत्र को कुछ मिलता था। २४,००० पण देकर कोई गणिका अपनी स्वतन्त्रता पा सकती थी । जब राजा सिहासन पर या रथ पर या पालकी पर विराजमान रहता था तो गणिका ऊसके उपर छत्र लगाये रहती थी और स्वर्ण कलश उसके साथ रहता था । उत्तम, मध्यम एवं निकृष्ट श्रेणियों को गणिकाएँ होती थीं और इन्हीं श्रेणियों के अनुसार उनका वेतनक्रम निर्धारित था । राजकीय रंगमंच पर गणिकाओं के पुत्र अभिनय करते थे । उपयुक्त विवेचन से पता चलता है कि गणिकाएँ दासियाँ थीं । नावध्यक्ष समुद्रों, नदी के मुहानों, झीलों एवं नदियों के
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