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विभागीय शासकों के कार्य
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चट्टभटजातीयान् जनपदान् क्षेत्रकरांश्च ।" हम यहाँ प्रत्येक अध्यक्ष के क्षेत्र के विषय में स्थानाभाव के कारण संक्षिप्त संकेत करने के अतिरिक्त और कुछ विशेष नहीं कह सकेंगे । सन्निधाता ( २२५ ) का कार्य था राज्यकोष के गृह के निर्माण, व्यापारिक वस्तुओं के भाण्डार गृह के निर्माण, अन्न, जंगल की वस्तुओं, पशुओं एवं आवागमन के मार्ग का निरीक्षण करना । समाहर्ता का कार्य था ( २२३५) सम्पूर्ण राज्य को चार जनपदों में बाँटना तथा ग्रामों को तीन श्रेणियों में व्यवस्थित करना, यथा-- ( १ ) ऐसे ग्राम जो करमुक्त थे, (२) वे जो सैनिक देते थे तथा (३) वे जो अन्न, पशु, धन, वन की वस्तुओं, बेगार आदि के रूप में कर देते थे । समाहर्ता की अध्यक्षता में गोप का कार्य था ५ या १० ग्रामों के दल का निरीक्षण करना । गोप जनसंख्या का ब्यौरा रखता था और देखता था कि वर्णों में तथा ग्रामों में कौन कर दाता है, और कौन करमुक्त है, उसे कृषकों, ग्वालों, व्यापारियों, शिल्पकारों, मजदूरों, दासों, द्विपद एवं चतुष्पद पशुओं, धन, बेगार, चुंगी तथा अर्थ-दण्ड से प्राप्त धन, स्त्रियों, पुरुषों, बूढ़ों एवं जवानों की संख्या, उनकी विविध वृत्तियों, रूढियों, व्यय आदि के ब्यौरे की बही रखनी पड़ती थी । राज्य के चार जनपदों में से प्रत्येक में एक स्थानिक होता था, जो वैसा ही कार्य करता था । अक्षपटलाध्यक्ष को गणक- कार्यालय का निर्माण इस प्रकार करना पड़ता था कि उसका द्वार उत्तर या पूर्व में हो, उसमें कुछ कोठरियाँ गणकों या लिपिकों के लिए तथा कुछ आलमारियाँ ऐसी हों जिन पर बहियाँ आदि रखी जा सकें। इस अधिकारी का कार्य था 'हिसाब-किताब ' रखना, जमानतों के रुपये की देखभाल करना, गवन न होने देना, असावधानी या छल-कपट किये जाने पर अर्थदण्ड की प्राप्ति करना । आषाढ़ की पूर्णिमा को आय-व्यय के हिसाब किताव का वार्षिक दिन माना जाता था। वर्ष में ३६४ दिन माने जाते थे और अधिक मास का वेतन पृथक् रूप से दिया जाता था । अक्षपटलाध्यक्ष के महत्त्वपूर्ण कार्यों में एक था धर्म, न्यायिक विधि, देशों की रूढियों, ग्रामों, जातियों, दुर्भिक्षों एवं संघों की तालिका को पंजीकृत रूप में रखना ( देशग्रामजातिकुलसंघातानां धर्म-व्यवहार- चरित्र संस्थानां • निबन्ध - पुस्तकस्थं कारयेत् ) । कौटिल्य (२१८) ने राजकर्मचारियों द्वारा किये जाने वाले ४० प्रकार के गवन का उल्लेख किया है, जिस की ओर संकेत दशकुमारचरित ( ८ ) में मिलता है। कौटिल्य ( २२६ ) ने एक महत्त्वपूर्ण एवं विलक्षण बात यह लिखी है कि जिस प्रकार पानी में रहती हुई मछलियों के बारे में यह जानना कि वे पानी कब पोती हैं, बड़ा कठिन है, उसी प्रकार राज्य के विभिन्न विभागों में नियुक्त कर्मचारियों एवं अधिकारियों के घूस लेने के विषय में जानना बड़ा कठिन है । कोषाध्यक्ष ( २।११) योग्य व्यक्तियों की उपस्थिति में ही रे, मोती, कम या अधिक मूल्य की सामग्रियाँ, जंगली वस्तुएँ, यथा चन्दन - अगुरु आदि कोष में रखता था । खनिज पदार्थों के अध्यक्ष को धातु, पारा, रसों तथा गुफाओं, छिद्रों एवं पर्वतों के नीचे से निकलने वाले रसों की विद्या में पारंगत होना पड़ता था । उसके अन्तर्गत लोहाध्यक्ष ( जो ताम्र आदि धातुओं के बरतन भाण्डों के निर्माण कार्य में लगा रहता था ), लक्षणाध्यक्ष ( जो टंकशाला अर्थात् टकसाल में सोने, चांदी या ताम्र के सिक्के ढलवाता था), रूपदर्शक ( जो सिक्कों की परीक्षा करता था ), खन्यध्यक्ष (होरे, मोती, शंख, सीपी अदि के व्यापारों का निरीक्षण करने वाला) तथा लवणाध्यक्ष (नमक का अध्यक्ष ) रहते थे | सुवर्णाध्यक्ष को स्वर्णकार की कर्मशाला का निर्माण करना पड़ता था जिसमें सोने चाँदी की वस्तुएँ बनती थीं। इस कर्मशाला में द्वार एक ही होता था, कक्ष चार होते थे और विश्वासी एवं दक्ष स्वर्णकार की नियुक्ति की जाती थी जो सड़क के ऊपर मुख्य भाग में अपनी दुकान रखता था । कर्मशाला के कर्मचारियों के अतिरिक्त अन्य कोई उसमें प्रवेश नहीं कर सकता था, जो कोई अनधिकृत ढंग से प्रवेश करता, उसका सिर काट लिया जाता था । राजकीय स्वर्णकार को नागरिकों एवं ग्रामीणों के लिए अपने शिल्पकारों द्वारा चाँदी के सिक्के बनवाने पड़ते थे । भाण्डाराध्यक्ष ( २।१५) को राजा की भूमि के अन्न, लोगों से प्राप्त कर, आकस्मिक राजस्व, चावल, तेल आदि
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