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धर्मशास्त्र का इतिहास राजुक । गुप्तकाल में भी ऐसी ही बात अपने ढंग से पायी जाती है। एपिप्रैफिया इण्डिका (जिल्द १५, १० ११३, जि० १७, पृ० ३४५, जिल्द २१, पृ० ७८) में बणित दामोदरपुर, बैग्राम एवं अन्य दानपत्रों के अनुशीलन से पता चलता है कि गुप्त सम्राट् उपरिक महाराज नामक प्रान्तीय शासकों की नियुक्ति स्वयं करते थे, और प्रान्तीय शासक या सम्राट विषयपतियों (जिले के अधिकारियों) की नियुक्ति करते थे। विषयपतियों को शासन-सम्बन्धी कार्यों में नगर-श्रेष्ठी (बैंकर), सार्थवाह (मुख्य वणिक् ), प्रथम कुलिक (शिल्प-श्रेणी के प्रमुख) एवं प्रथम कायस्थ (प्रमुख सचिव) नामक चार सम्मतिदाता सहायता देते थे। विषयपतियों के प्रमुख कार्यालय-स्थान को अधिष्ठान कहा जाता था और उनके अन्य कार्यालयो (कचहरियों) को अधिकरण । भूमि-विक्रय के बारे में पुस्तपालों (लोगों की सम्पत्ति के लेखप्रमाण रखने वालों) से पूछा जाता था और वे अपनी ओर से प्रमाण आदि देते थे। कुमारगुप्त प्रथम के ताम्रपन (एपि० इण्डि०, जिल्द, १७, पृ० ३४५, ३४८) में 'ग्रामाष्ट-कुलाधिकरणम्' आया है, जिसका तात्पर्य है एक कार्यालय, जिसका अधिकार-क्षेत्र ८ ग्रामों तक था । मनु (७।११६) का कहना है कि दस ग्रामों के अधिकारी को भूमि का एक कुल वेतन रूप में मिलता था। कुल्लू क के शब्दों में एक कुल उतनी भूमि को कहते हैं जिसे जोतने के लिए प्रति हल ६ बैलों वाले दो हल लगते थे । विष्णुधर्मसूत्र (३।१५) में आया है-- ''कुलं हलद्वयकर्षणीया भूः।" शुक्रनीतिमार (१।१६१-१६२) का कहना है कि एक सौ ग्रामों के स्वामी को सामन्त कहा जाता है, एक सौ ग्रामों पर राजा द्वारा नियुक्त अधिकारी को अनुसामन्त तथा दस ग्रामों के अधिकारी को नायक कहा जाता है। मनु (७। ६१ एवं ८१), याज्ञ० (१।३२२), काम० (५७५), विष्णुधर्मसूत्र (३।१६-२१) एवं विष्णुधर्मोत्तर (२।२४।४८४६) का कथन है कि राजा को चाहिए कि वह चतुर, सच्चे एवं अच्छे कुल के लोगों को राज्य के विभागों के अध्यक्षों के रूप में नियुक्त करे । इस विषय में और देखिए कौटिल्य (२६), विष्णुधर्मसूत्र (३।१६.२१), विष्णुधर्मोत्तर (२।२४१४८-४६), शान्ति० (६६।२६) आदि जहाँ ऐसा आया है--"उन लोगों को जो अमात्य के गुणों से सम्पन्न हैं, विभिन्न विभागों के अध्यक्षों के रूप में नियुक्त करना चाहिए, उनके कार्यों की सदा परीक्षा होती रहनी चाहिए, क्योंकि मनुष्य स्वभावतः चंचल होते हैं और नियुक्त हो जाने पर अश्वों की भाँति अपना चित्त-परिवर्तन प्रकट करते हैं।...धर्मिष्ठ लोगों को धर्मकार्य या न्यायकार्य में नियुक्त करना चाहिए, शूरों को संग्रामकार्य में, अर्थ-विद्या में निपुण लोगों को राजस्व कार्य में तथा विश्वासी लोगों को खानों, नमकों, चुंगी-स्थानों, घाटों एवं हस्तिवनों में नियुक्त करना चाहिए।"
कौटिल्य ने अपने द्वितीय अधिकरण में २८ विभागों के कार्यों तथा उनके अध्यक्षों के कर्तव्यों के विषय में मविस्तर लिखा है। बड़े ही सूक्ष्म रूप से उन्होंने जो विवेचन उपस्थित किया है वह एक ज्ञानकोश का द्योतक है । शासन के सम्बन्ध में कौटिल्य का ग्रन्थ प्रामाणिक माना जाने लगा था और बहुत-से शिलालेखों में अध्यक्ष-प्रचार' नामक अधिकरण में वर्णित बातों के आधार पर ही अधिकारियों की नियुक्तियों का उल्लेख मिलता है। उदाहरणार्थ हम भोजवर्मदेव के बेलवा दान-पत्र (एपि• इण्डि , जिल्द १२, पृ० ४०) एवं विजयसेन के बैरकपुर दान-पत्र (एपि० इण्डि०, जिल्द १५, पृ० २८३) में यह पाते हैं--"अन्यांश्च सकलराजपादोपजीविनोध्यक्षप्रचारोक्तान इहाकीतितान्
६. अमात्यसम्पदोपेताः सर्वाध्यक्षाः शक्तितः कर्मसु नियोज्याः । कर्मसु चैषां नित्य परीक्षा कारयेच्चित्तानित्यत्वान्मनुष्याणाम् । अश्वसधर्माणो हि मनुष्या नियुक्ताः कर्मसु विकुर्वते । को० २१६; मिष्ठान धर्मकार्येषु शूरान् संग्रामकर्मणि । निपुणानर्थकृत्येषु सर्वत्र च तथा शुचीन् ॥ विष्णुधर्मोत्तर २।२४।४८ । याज. (१।३२२) की टीका मिताक्षरा में भी ऐसा ही पद्य उद्धत है।
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