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________________ राष्ट्रीयता एवं शासन व्यवस्था ६४३ विपत्तियाँ एवं कहर ढाये हैं उसमे विश्व का इतिहास कलंकित हो चुका है। हम यहाँ इस विषय में कुछ कहना उचित नहीं समझते हैं । अब हम प्रान्तीय एवं स्थानीय शासन के विषय में कुछ लिखेंगे। प्रत्येक राज्य में कई एक देश थे और देशों की कई एक इकाइयाँ । राष्ट्र के शासक को 'राष्ट्रपति' या 'राष्ट्रिय' कहा जाता था । अमरकोश के अनुसार देश, राष्ट्र, विषय एवं जनपद शब्द पर्यायवाची हैं । इनके परिमाणों के विषय में उत्कीर्ण लेखों के साक्ष्यों में मतैक्य नहीं है। कभी-कभी 'विषय' देश का उपविभाग माना गया है (देखिए 'राष्ट्रपति - विषयपति- ग्रामकूट' - - इण्डियन एण्टिक्वेरी, जिल्द ८, पृ० २०; वही, जिल्द १२, पृ० २४७, २५१ ) । किन्तु हि रहड़गल्ली दान-पत्र में (एपिफिया इण्डिका, जिल्द १, पृ० ५) 'विषय' पहले आया है और 'राष्ट्र' उसके उपरान्त, जिससे प्रकट होता है कि 'विषय' राष्ट्र से बड़ा क्षेत्र है । सह्याद्रिखण्ड (उत्तरार्ध, अध्याय ४) के अनुसार एक देश में १०० ग्राम होते हैं, एक मण्डल में चार देश, एक खण्ड में १०० मण्डल और सम्पूर्ण पृथ्वी में ६ खण्ड कहे गये हैं । काम्बे दान-पत्र (६३० ई०) से पता चलता है कि मण्डल देश का एक भाग था (एपि० इण्डि०, जिल्द ७, पृ० २६ ) | बानगढ़ दान-पत्र (एपि० इण्डि०, जिल्द १४, पृ०२३४ ) एवं आमगाछी दान-पत्र से पता चलता है कि मण्डल विषय से छोटा था और विषय भुक्ति का एक भाग मात्र था । 'भोग' शब्द, जिसका निर्माण 'भुक्ति' शब्द के समान ही है, लगता है विषय का ही एक भाग है और विषय राष्ट्र का एक भाग है (यथा- राष्ट्रपति विषयपति-भोगपतिप्रभृतीन् समाज्ञापयति, एपि० इण्डि०, जिल्द १४, पृ० १२१) | मिताक्षरा ( याज्ञ० १।३१६ ) का कहना है कि केवल महीपति ही भूमि का दान कर सकता है न कि भोगपति ( भोग का अधिकारी)। देश के किसी भाग का द्योतन 'आहार' भी करता है। (रूपनाथ - शिलालेख, सारनाथ स्तम्भ लेख -- कार्पस इंस्क्रिप्शन इण्डिकेरम् जिल्द १, पृ० १६२ एवं १६६, नासिक अभिलेख -- सं० ३ एवं १२ - - गोवर्धनाहार एवं कापुराहार, एपि० इण्डि०, जिल्द ८, पृष्ठ ६५ एवं ८२; कार्ले का अभिलेख सं० १६ एपि० इण्डि० जिल्द ७, पृ० ६४ - जहाँ मामलाहार नाम मिलता है ) । स्थानाभाव के कारण देश के विभिन्न भागों का पूर्ण विवेचन यहाँ सम्भव नहीं है (विस्तृत विवेचन के लिए देखिए जे० आर० ए० एस० सन् १६१२, पृ० ७०७ में डा० फ्लीट की व्याख्या तथा जे० बी० वी० आर० ए० एस० जिल्द २६, १६१४ - १६१७, पृ० ६४८६५३ में मेरा निबन्ध ) । कौटिल्य (२1१ ) का कथन है कि 'राज्य में ग्रामों के दल बनाये जाने चाहिए, प्रत्येक दल में एक मुख्य नगर (बस्ती) या दुर्ग होना चाहिए; दस ग्रामों के दल को संग्रहण, २०० ग्रामों के दल को खाटिक, ४०० ग्रामों के दल को द्रोणमुख कहा जाना चाहिए तथा ८०० ग्रामों के मध्य में एक स्थानीय होना चाहिए।' 'स्थानीय' शब्द, लगता है, आधुनिक शब्द 'थाना' शब्द का द्योतक है, क्योंकि शब्द ध्वनि एवं अर्थ दोनों में विचिन्न समता है । मनु (७।११४ ) ने इसी प्रकार कहा है कि दो, तीन या पाँच ग्रामों के बीच में, राजा को चाहिए कि वह रक्षकों का एक मध्य स्थान नियुक्त करे । इस मध्य स्थान को 'गुल्म' कहा गया है। इसी प्रकार एक सौ ग्रामों के बीच में 'संग्रह' होता है। मनु (७११५-११७), विष्णुधर्मसूत्र ( ३१७-१४), शान्ति० (८७३), अग्नि० (२२३।१-४), विष्णुधर्मोत्तर (२०६१ | १-६), मानसोल्लास (२।२।१५६ - १६२ ) के अनुसार राजा द्वारा एक ग्राम में, १० ग्रामों के दल में, २० ग्रामों, १०० ग्रामों एवं १००० ग्रामों के दलों में क्रम से एक से ऊँचे बढ़ते हुए अधिकारियों की नियुक्ति की जानी चाहिए, जिन्हें अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों के समाचार से अवगत होना चाहिए और यदि वे कोई कार्य करने में समर्थ न हो सकें तो उन्हें इसकी सूचना ऊपर वाले अधिकारी को दे देनी चाहिए। मनु ( ७।१२० ) का कहना है कि राजा के किसी मन्त्री द्वारा इन अधिकारियों के कार्यों की एवं उनके पारस्परिक कलह आदि की देखभाल होनी चाहिए। अशोक की राजाशाओं से पता चलता है कि उसने एक के नीचे एक अधिकारी की नियुक्ति कर रखी थी, यथा-- महामान, युक्त, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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