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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास की बृहत्संहिता, बौधायन गृह्यसूत्र ( १।१७), कामसूत्र (५६, ३३-४१), बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र ( ३३८३-११७ ), राजशेखर की काव्यमीमांसा ( १७वाँ अध्याय) ने बहुत से देशों के नाम दिये हैं । अन्तिम पुस्तक भारत को पांच भागों में ती है और सभी चारों दिशाओं में ७० देशों के नाम देती है, किन्तु मध्य भारत के देशों के नाम नहीं देती । भावप्रकाशन ( पृ० ३०६ - ३१०) नं ६४ देशों के नाम दिये हैं। उसका कहना है कि दक्षिणापथ भारतवर्ष का चौथाई है, और वेता एवं द्वापर के युगों में हिम से डरकर लोग दक्षिण में चले गये। कुछ तन्त्रग्रन्थों में ५६ देशों के नाम आये हैं (देखिए इण्डियन कल्चर, जिल्द ८, पृ० ३३) । यादवप्रकाश की वैजयन्ती ( एक कोश) में एक सौ से अधिक देशों के नाम तथा कुछ की राजधानियों के नाम आये हैं । ६४२ किसी राष्ट्र के लिए किसी परिमाण की भूमि एवं बड़ी जनसंख्या की आवश्यकता पड़ती है। थोड़ी-सी जनसंख्या एवं कुछ ग्रामों से राष्ट्र का निर्माण नहीं होता । ऊपर जिन राष्ट्रों के नाम आये उनकी सीमाओं में विजयपराजय के फलस्वरूप बहुत-से परिवर्तन होते रहे हैं । प्राचीन भारत में आधुनिक राष्ट्रीयता की भावना नहीं थी । ग्रन्थकारों ने राज्य का नाम लिया है और राष्ट्र को उसका एक तत्त्व माना है। किन्तु उन लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का पूर्ण अभाव था और उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए कोई प्रयत्न भी नहीं किया । आजकल जिसे हम राष्ट्र कहते हैं वह एक भूनैतिक और आन्तरिक अनुभूति का विषय है । इस रूप में केवल १७ १८वीं शताब्दियों में कुछ दिनों के लिए महाराष्ट्रियों एवं सिक्खों ने राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत कर रखी थी। पूरे भारतवर्ष में धर्म, दर्शन, साहित्यिक विधियों ( प्रणालियों), कलात्मक विधियों, पूजा की विधियों, तीर्थस्थानों की श्रद्धा आदि में एकरूपता थी, किन्तु इन कारणों से भारतवर्ष में राष्ट्रीय एकता की भावना को जन्म न मिल सका । अधिकांश सूत्रकारों एवं स्मृतियों ने आर्यावर्त की पवित्र भूमि की सीमाएँ निर्धारित करने का प्रयत्न अवश्य किया है और इसे म्लेच्छों के देशों से पृथक् माना है ( देखिए इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय १) | विष्णु ० ( 2131१-२ ), मार्कण्डेय ( ५५।२१) आदि पुराणों ने भारत की महत्ता के गीत गाने में सारी साहित्यिक शक्ति लगा टी है, और कर्म भूमि के रूप में इसका वर्णन करते हुए लिखा है कि यह वह देश है जहाँ स्वर्ग एवं मोक्ष के अभिकांक्षी बसते हैं ... ( 'कर्मभूमिरियं स्वर्ग मपवर्गं च गच्छताम् ।' या ' तत्कर्मभूमिर्नान्यत्र सम्प्राप्तिः पुण्यपापयोः । । ' -- मार्कण्डेय पुराण) । मनु (२/२०) ने ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पञ्चाल एवं शूरसेन नामक पवित्र देशों के प्रति अपना अभिमान एवं श्रद्धा प्रकट की है । यही बात वसिष्ठ (१।१०) ने भी कही है। शंख - लिखित (याज्ञ०१२ की टीका में विश्वरूप द्वारा उद्धृत) का कथन है कि आर्यावर्त देश उच्च गुणों से परिपूर्ण, पुरातन और पूत है (देश आर्यो गुणवान्" सनातनः पुण्यः) । स्मृतियों का प्रणयन विभिन्न समयों में होता रहा, उनमें भारत के विभिन्न भागों की रीतियाँ स्थान पाती गयीं, उन्होंने वेदों का अनुसरण करने वालों के लिए सामान्य बातों का उल्लेख किया, किसी विशिष्ट देशभाग की परम्पराओं को विशेषता नहीं दी ( आश्वलायनगृह्यसूत्र -- यत्तु समानं तद् वक्ष्यामः) । धार्मिक दृष्टिकोण से ( राजनीतिक दृष्टिकोण से नहीं ) सभी ग्रन्थकारों ने भारतवर्ष या आर्यावर्त के प्रति भावात्मक सम्बन्ध जोड़ रखा था और सारे राष्ट्र को एक मान रखा था, इस तथ्य को स्वीकार करने में किसी को संदेह नहीं हो सकता। आज हम 'राष्ट्रीयता' शब्द का जो अर्थ लगाते हैं, उसके अनुसार प्राचीन भारतीय राष्ट्रीयता में हम शासन सम्बन्धी अथवा राजनीतिक तत्त्व का अभाव पाते हैं । किन्तु इन बातों के साथ हमें एक अन्य तथ्य नहीं भूलना चाहिए और वह है सारे देश को एक छत के अन्तर्गत लाना, अर्थात् किसी एक राजा के छत्र के अन्तर्गत सारे देश के लोगों को रखना । यह थी चक्रवर्ती सम्राट् की कल्पना, जो आधुनिक साम्राज्यवाद की कल्पना एवं उसके व्यावहारिक रूप से पूर्णरूपेण भिन्न थी । आज के साम्राज्यवादी राष्ट्रों ने अपनी विस्तारवादी भावनाओं से अन्य राष्ट्रों पर जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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