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भारतवर्ष के अवान्तर देश
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पुराण २।२।१२)। महाभारत ने १३ द्वीपों के नाम लिये हैं (आदि० ७५।१६, वनपर्व ३१५२ एवं १३४।२०); एक स्थल (द्रोण ० ७०।१५) पर १८ द्वीपों के नाम हैं। भारतवर्ष के विषय में देखिए इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय १। मनु (२।२०) ने पवित्र कुरुक्षेत्र-भूमि एवं मत्स्यों, पञ्चालों, शूरसेनों की भूमि को सर्वोत्तम माना है, जहां के विद्वान् ब्राह्मण विचारों एवं क्रियाओं में सम्पूर्ण विश्व के लोगों के लिए नेता एवं आदर्श माने गये हैं। विष्णु० (२।३।२), ब्राह्म०, मार्कण्डेय तथा अन्य पुराणों ने भारतवर्ष को कर्मभूमि माना है। यह उस देश-भक्ति का द्योतक है जो पाश्चात्य देशों में दुर्लभ है। अति प्राचीन काल से भारत बर्ष को बहुत देशों का झुण्ड कहा जाता रहा है। इसके देशों और उनके निवासियों के एक ही नाम चलते आये हैं (पाणिनि ४।१।१६८, ४।२।८१)। ऋग्वेद में निम्नलिखित राजकुलों के नाम आये हैं--यदुओं, तुर्वसुओं द्रुघुओं, अनुओं एवं पुरुओं के राजकुल (ऋ.० १।१०८८, ८।१०।५ आदि)। चेदि (८।५. ३६), कोकट (३।५३१४), ऋजीक (८७१२६), रुशम (५।३०।१२), वेतसु (१०।४६।४) नामक देशों के नाम भी हैं । अथर्ववेद (५।२२) में बहुत-से लोगों एवं देशों के नाम हैं, जिनमें बलिकों (५।३०।५ तथा ६): मूजवान् (५।३०।५ एवं ८), गंधारि, अंग, मगध (५।३०।१४) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ऐतरेय ब्राह्मण (३८६३) ने भारत वर्ष को पांच भागों में, यथा--पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर (उत्तर कुरु एवं उत्तर मद्र) एवं मध्य (कुरु-पञ्चाल एवं वश-उशीनर) में बाँट दिया है। भारतवर्ष दो भागों में भी बंटा माना गया था, यथा--दक्षिणापथ (नर्मदा से दक्षिण तक) एवं उत्तरापथ । ईसा से कुछ शताब्दियों पूर्व ही यह धारणा बंध चुकी थी। हाथीगुम्फा अभिलेख में उत्तरापथ के कतिपय राजाओं के नाम आये हैं और महाभाष्य में दक्षिणापथ के कई तालाबों के नाम आये हैं।५ ब्राह्मण-ग्रन्थों में कुरु-पञ्चालों (त० ब्रा० १।८।४), उत्तर कुरु. उत्तर मद्र, कुरु-पञ्चालों, वण-उशीनरों (ऐत० ब्रा० ३८॥३), कुरुपञ्चालों, अंग-मगधों, काशि-कोसलों, शाल्व-मत्स्यों, वश-उशीनरों (गोपथ-ब्राह्मण २।१०) के नाम आये हैं। गन्धारों का उल्लेख छान्दोग्योपनिषद् (६।१४।१) में, विदेह का बृहदारण्यकोपनिषद् (३।१।१) में, मद्रों का बृहदारण्यकोपनिषद् (३।३।१) में हुआ है। महाभारत में कतिपय प्रसंगों में लगभग २०० देशों के नाम आये हैं (सभा० ४।२१-३२, २०।२६-३०, सभा २५, सभा ५२।१३-१६, ५३१५६, विराट १।१२-१३, भीष्म ६।३६-६६, ५०।४७-५३, द्रोण २।१५-१८, ७०।११-१३, आश्वमेधिक ७३-७८, ८३।१०)। बौधायनगृह्यसूत्र (१।१७) ने सूर्यपूजा के लिए एक मण्डल की ब्यवस्था की है और आठ दिशाओं में आठ देशों तथा मध्य में एक देश को उस मण्डल के लिए प्रतिनिधि-देश माना है। इस प्रकार इम गृह्यसूत्र में ६ देशों के नाम हैं। पुराणों में भी देशों के नामों की तालिकाएँ मिलती हैं (मत्स्य. ११४१३४-५६, मार्कण्डेय० ५७१३२-६७ एवं अध्याय ५८, ब्राह्म० १७११०-१५ एवं २५२५३६) । कभी-कभी एक ही देश के दो नाम आते हैं, यथा विदर्भ एवं क्रथकैशिक दोनों एक ही देश थे (रघुवंश ७१ एवं ३२) । राइस डेविड्स (बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ० २३) नं १६ देशों के नाम दिये हैं जो अंगुत्तरनिकाय (अध्याय १, पृ० २१३, ४, पृ० २५२) एवं दिग्घनिकाय (२, पृ० २००) में उल्लिखित हैं - अंग, मगध, कासि, कोसल, वज्जि, मल्ल, चेटि (चेदि), वश (वत्स ? ), कुरु, १ञ्चाल, मत्स्य, शूरसेन, अश्मक, अवन्ति, गन्धार, कम्बोज । वराहमिहिर
५. महाभाष्य में निम्न देशों के नाम आये हैं-अजमीढ, अंग, अम्बष्ठ, अवन्ति, इक्ष्वाकु, उशीनर, ऋषिक, कडेर, कलिंग, कश्मीर, काशि, कुन्ति, कुरु, केरल, कोसल,क्षुद्रक, गन्धार, चोड, जिनु, त्रिगर्त, दशा, नीचक, नोप, नश, पञ्चाल पारस्कर, पुण्ड, मगध, मद्र, महिष, मालव, युगन्धर, वंग, विदर्भ, विदेह, वृजि, शिबि, सुह्म, सौवीर । कुछ देशों के नाम पाणिनि (४।१।१७०-१७५, ४।२।१०८) ने भी दिये हैं । यथा--अवन्ति, अश्मक, कलिंग, कम्बोज, कुरु, कोसल, मगध, मद्र, साल्व, सौवीर ।
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