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धर्मशास्त्र का इतिहास जहाँ जंगल ही जंगल हों, जहाँ चोरों का अड्डा हो, जो जलहीन हो, कँटीले पौधों एवं सर्षों से युक्त हो; राष्ट्र के चुनाव के लिए उपयुक्त नहीं है । उस देश को, जहाँ जीविका के साधन सरलता से उपलब्ध हो सकें, जहाँ की मिट्टी अच्छे गुणों वाली हो, जहाँ पर्याप्त मात्रा में जल हो, जहाँ पर्वतमालाएँ हों, जहाँ शूद्र, शिल्पकार एवं व्यापारी अधिक संख्या में हों, जहाँ के कृषक (भूमिसुधार-सम्बन्धी कार्यों में) विशेष रुचि रखते हों, जो राजा के प्रति सत्य एवं अनुकूल तथा शत्रु के प्रति प्रतिकूल हों तथा दुःखों (विपत्तियों) एवं कर के भार को वहन कर सकें, जो अति विस्तृत हो, जहाँ देश-विदेश के व्यक्ति निवास करते हों जो सत्यमार्गी हों, जहाँ धन-धान्य एवं पशुओं का प्राचुर्य हो, जहाँ के मुख्य पुरुष न तो मूर्ख हों और न दुष्ट हों; अपेक्षाकृत अधिक अच्छा समझना चाहिए। उपर्युक्त उपयुक्तताओं से पता चलता है कि देश या राष्ट्र
उसमें जीवन के साधन प्रचुर मात्रा में हों, और हो वह सुरक्षा के उपादानों से भली भाँति परिपूर्ण । जनसंख्या के विषय में कुछ स्मृतिकारों के मतों में विभेद है। मनु (७।६६) के अनुसार देश में केवल आर्य हों, किन्तु विष्णुधर्मसूत्र (३.५) के अनुसार उसमें अपेक्षाकृत शूद्र एवं वैश्य अधिक हों । एक अन्य स्थान पर मनु (८।२२) का कहना है कि जिस देश में शूद्र अधिक हों, जहाँ नास्तिकों की संख्या अधिक हो और द्विज बिल्कुल न हों, वह देश व्याधियों एवं दुभिक्षों से आक्रान्त होकर नष्ट हो जाता है। यही बात मत्स्यपुराण (२१७।१-५), विष्णुधर्मोत्तर (२।२६।१-५), मानसोल्लास (२॥३, श्लोक १५१-१५३), नीतिवाक्यामृत (जनपदसमुद्देश, पृ० १६, जिसमें 'राष्ट्र', 'विषय,' 'देश', 'जनपद' आदि की परिभाषाएँ दी हुई हैं) ने भी कही है । प्रथम दो ग्रंथों का कहना है (एवंविधं यथालाभं राजा विषयमावसेत्) कि प्रत्येक राष्ट्र में उनके कथनानुसार गुणों का पाया जाना सम्भव नहीं है, अतः राजा को चाहिए कि वह जो कुछ प्राप्त है उसका सर्वोत्तम उपयोग करे। कौटिल्य (२।१)का कहना है कि राजा को ग्रामों का मण्डल प्राचीन ढहों या नवीन स्थानों पर बनवाना चाहिए, जिनमें अन्य देशों के लोग बसने को प्रेरित किये जायँ, जहाँ राष्ट्र के अधिक जनसंख्या वाले स्थानों से लोग बुलाकर बसाये जायँ, किन्तु प्रत्येक ग्राम में १०० से न कम और न ५०० से अधिक कुल बसाये जायें और उसमें अधिकतर शूद्रकर्षकों (कृषकों) को बसाया जाय । प्रत्येक ग्राम का विस्तार (रकबा) एक या दो कोस (क्रोश) का हो और वह पड़ोसी ग्रामों की सहायता कर सके।
पौराणिक भूगोल के अनुसार द्वीप मात हैं, यथा--जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौञ्च, शक एवं पुष्कर (विष्णु
रहती है उस देश को देवमातृक (देवो माता यस्य) कहते हैं, किन्तु जहाँ यह नदियों, तालाबों आदि पर निर्भर रहती है उसे नदीमातृक कहते हैं।
___४. भूतपूर्वमभूतपूर्व वा जनपद परदेशापवाहनेन स्वदेशाभिष्यन्दनमनेन वा निवेशयेत् । शूद्रकर्षकप्रायं कुलशतावर पञ्चशतकुलपरं ग्राम कोशद्विक्रोशसीमानमन्योन्यारक्षं निवेशयेत् । अर्थशास्त्र २१ । इस कथन से व्यक्त होता है कि कौटिल्य ने 'जनपद' शब्द को 'देश' के अर्थ में प्रयुक्त किया है जहाँ उपनिवेश बसाया जाय और जो राज्य के अन्तर्गत हो अथवा न हो। डा० प्राणनाथ (स्टडी इन दी एकनॉमिक कण्डीशन आव ऐंश्येण्ट इण्डिया, पृ० १७) की यह व्याख्या कि यह (अर्थात् 'जनपद') राज्य का एक भाग है, स्वीकृत नहीं की जा सकती, जैसा कि 'भूतपूर्वमभूतपूर्वम्' शब्दों से व्यक्त है । संस्कृत के लेखकों एवं पुराणों से व्यक्त होता है कि 'जनपद' का सीधा अर्थ है 'देश' और अमरकोश में यह देश एवं विषय का पर्याय कहा गया है। क्षीरस्वामी ने जनपद का अर्थ राष्ट्र से लगाया है। काव्यमीमांसा ने, जिस पर डा० प्राणनाथ देशों की संख्या के विषय में अपनी व्याख्या के लिए निर्भर हैं, 'जनपद' शब्द का प्रयोग भमि की चारों दिशामों में देशों के नामों के लिए किया है।
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