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________________ अध्याय ५ राष्ट्र (३) 'राष्ट्र' शब्द ऋग्वेद (४१४२।१ "मम द्विता राष्ट्र क्षत्रियस्य" अर्थात् "मेरा राष्ट्र दोनों ओर या दोनों गोलकों में है"-ऐसा व सदस्य ने कहा है) में भी आया है । वरुण को राष्ट्रों का स्वामी (राजा राष्ट्राणाम् .....ऋ० ७१३४।११) कहा गया है। कई अन्य स्थलों पर भी यह शब्द प्रयुक्त हुआ है, यथा--ऋग्वेद ७८४१२, १०।१०६।३ आदि । तैत्तिरीय संहिता (७१५१८, वाजसनेयी संहिता २२१२२) में आशीर्वचन आया है--"इस राष्ट्र में राजा शूर, महारथी और धनुर्धर हो।'' और देखिए तै० ब्रा० (३१८१३), जहाँ उपर्युक्त आशीर्वचन की व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। अपर्ववेद (१२।१।८) में पृथिवी को माता कहा गया है और उसका आह्वान किया गया है कि वह राष्ट्र को बल एवं दीप्ति दे । कामन्दक (६३) का कहना है कि राज्य के सभी अंगों का उद्भव राष्ट्र से होता है अतः राजा को सभी सम्भव प्रयत्नों द्वारा राष्ट्र की वृद्धि करनी चाहिए । अग्निपुराण (२३६।२) के अनुसार राज्य के सभी अंगों में राष्ट्र सर्वश्रेष्ठ है। मनु (७।६६) का कहना है कि राजा को ऐसे देश में घर बनाना (रहना) चाहिए, जहाँ पानी न जमा रहता हो, जहाँ प्रचुर अन्न उपजता हो, जहाँ अधिकतर आर्यों का वास हो, जहाँ (आधियों एवं व्याधियों से) उपद्रव न हो, जो (वृक्षों, पुष्पों एवं फलों के कारण) सुन्दर हो, जहाँ के सामन्त अधिकार में आ गये हों, और जहाँ जीविका के साधन सरलता से प्राप्त हो सकें। यही बात याज्ञ ० (१।३२१) एवं विष्णुधर्मसूत्र (३।४-५) में भी दूसरे ढंग से कही गयी है। इस विषय में कामन्दक (४१५०-५६) के वचन पठनीय हैं--"राजा के राष्ट्र की समृद्धि इसकी मिट्टी के गुणों पर निर्भर राष्ट्र-समृद्धि से राजा की समृद्धि होती है, अतः राजा को चाहिए कि वह समृद्धि के लिए अच्छे गुणों से युक्त ऐसी भमि का चनाव करे, जिसमें प्रचर अन्न उपजे. जहाँ खनिज हो, जहाँ व्यापार हो सके, खानों तथा अन्य वस्तुओं की भरमार हो, जहाँ पशु-पालन हो सके, प्रचुर जल हो, जहाँ सुसंस्कृत व्यक्ति रहते हों, जो सुन्दर हो, जहाँ जंगल हो, हाथी हों, जहाँ जल-स्थल के मार्ग हो, जहाँ केवल वर्षा के जल पर निर्भर न रहना पड़े।"३ वह भूमि जो केकरीली एवं पथरीली हो, १. आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसो जायतामास्मिन् राष्ट्र राजन्य इषव्यः शूरा महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुवोडानड्वानाशः सप्तिः पुरन्ध्रिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलिन्यो न ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् । ते० सं० ७॥१८॥१, वाज० सं० २२।२२ (थोड़े अन्तरों के साथ)। २. अल्पोदकतृणो यस्तु प्रवातः प्रचुरातपः । स ज्ञ यो जाङ्गलो देशो बहुधान्यादिसंयुतः॥ मनु (७।६६)की व्याख्या में कुल्लूक द्वारा उद्धत; स्वल्पवृक्षोदकपर्वतो बहुपक्षिमृगः प्रचुरवर्षातपश्च जाङ्गलो देश इति । एक स्मृति से नीतिप्रकाश (पृ० १६७) द्वारा उद्धत । याज्ञ० (११३२१) को व्याख्या के सिलसिले में मिताक्षरा का कथन है'यद्यप्यल्पोदकतरुपर्वतोद्देशो जाङ्गलस्तथाप्यत्र सजलतरुपर्वतो देशो जाङ्गलशब्दे नाभिधीयते।' ३. अदेवमातृका चेति शस्यते भविभतये। काम० ४॥५२॥ देशो नद्यम्बुवृष्ट्यम्बुसंपन्नव्रीहिपालितः। स्यान्नदोमातृको देवमातृकश्च यथाक्रमम ॥ अमरकोश, अर्थात् जहाँ पर धान आदि की खेती केवल वर्षा-जल पर निर्भर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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