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मन्त्रवर्ग के पदाधिकारी
६३५ छापा मार दिया। विष्णुधर्म सूत्र ( ३।७५ ) में आया है -- " राजा च सर्वकार्येषु सांवत्सराधीनः " अर्थात् सभी कार्यों में राजा 'सांवत्सर' पर निर्भर रहता है। बृहत्संहिता (२६) में आया है कि बिना सांवत्सर के राजा अन्धे के समान मार्ग में त्रुटियाँ करता है। यही बात अपने ढंग से कामन्दक ( ४१३३ ) तथा विष्णुधर्मोत्तर ( २/४/५-१६) ने भी कही है । कौटिल्य ( ६४ ) ज्योतिष पर अधिक निर्भरता के विरुद्ध है । २० किन्तु याज्ञ० (१।३०७ ) का कहना है कि राजा का उत्थान एवं पतन नक्षत्रों के प्रभावों पर निर्भर रहता है ।
सेनापति - बहुत-से ग्रंथों में सेनापति के गुणों का वर्णन किया गया है, यथा-- कौटिल्य ( २१३३), अयोध्या० ( १००1३० = सभा० ५।४६ ), शान्ति० ( ८५।११-३२), मत्स्य० ( २१५ ८ - १० ), अग्नि० (२२०1१ ), काम० (२८१२७-४४), विष्णुधर्मोत्तर ( २१२४/४-६ ), मानसोल्लास ( २/२ ) । सेनापति को ब्राह्मण या क्षत्रिय होना चाहिए (अग्नि० २२०1१, मत्स्य० २१५/१० ) । शुक्र० (२।४२६ - ४३०) ने क्षत्रिय को उत्तम ठहराया है, किन्तु यदि वीर क्षत्रिय न मिले तो उसके अनुसार ब्राह्मण सेनापति बनाया जा सकता है, किन्तु शूद्र कभी भी नहीं। मानसोल्लास के अनुसार सेनापति के गुण ये हैं- अच्छा कुल-चरित्र, साहस, कई भाषाओं की योग्यता, अश्व एवं हस्ती पर चढ़ने एवं अस्त्र-विद्या की चातुरी, शकुनों एवं दवाओं का ज्ञान, अश्व-जातियों की पहचान, आवश्यक एवं अनावश्यक के अन्तर का ज्ञान, उदारता, मधुर वाणी, आत्म-निग्रह, मेधा, दृढप्रतिज्ञता । महाभारत काल में सेनापतियों का चुनाव होता था ( उद्योग १५१, द्रोण ५, कर्ण १० ) किन्तु आगे चलकर वह परम्परा समाप्त हो गयी। उसकी नियुक्ति स्वयं राजा द्वारा की जाने लगी।
दूत - अति प्राचीन काल में भी यह शब्द और इसका पद प्रचलित था। ऋग्वेद में कई स्थलों ( 919219, १।१६१।३, ८।४४।३) पर अग्नि को दूत माना गया है और उसे यज्ञों में देवों को बुलाने के लिए कहा गया है। इस शब्द के साथ चार-वृत्ति (गुप्तचर के कार्य ) का अर्थ भी लगा हुआ है। ऋग्वेद (१०1१०८।२-४ ) में आया है कि इन्द्र नेसरमा ( देवों की कुतिया ) को पणियों के धन का पता लगाने के लिए भेजा था। उद्योगपर्व ( ३७।२७) में दूत के आठ विशेष गुणों का उल्लेख है, यथा - उसे प्रतिनिविष्ट अर्थात् स्तब्ध ( ढीठ ) नहीं होना चाहिए, कायर नहीं होना चाहिए, दीर्घसूत्री (मन्द) नहीं होना चाहिए, उसे दयालु एवं सुशील होना चाहिए, उसे ऐसा होना चाहिए कि दूसरे उसे अपने पक्ष में न मिला सकें; रोगरहित होना चाहिए और होना चाहिए मधुरभाषी । २१ और देखिए शान्ति० (८५ | २४, यहाँ केवल ७ गुणों का वर्णन है), अयोध्या० ( १००/३५), मनु ( ७/६३-६४ ), मत्स्यपुराण (२१५।१२-१३) । दुत उतना ही बोले जितना उससे ( राजा द्वारा ) बोलने को कहा गया है, नहीं तो वह प्राणों से हाथ धो सकता है ( उद्योग ० ७२।७) । शान्ति० (८५।२६-२७) ने दूत के शरीर को पवित्र ठहराया है। कौटिल्य ने दूत के विषय में एक अध्याय लिख डाला है (१।१६) । नीति-निर्धारण के उपरान्त दूत को उस राजा के पास भेजना चाहिए जिस पर आक्रमण किया जाने वाला हो (देखिए कामन्दक को भी १२।१ ) ।
दूत के तीन प्रकार हैं; (१) निसृष्टार्थ ( वह, जिसे जो कहना है उसे कहने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता है ) । इस प्रकार के को मंत्री (अमात्य) का अधिकार रहता है, यथा पांडवों के दूत कृष्ण तथा आजकल के दूत (ऐम्बेसडर) 1 (२) परिमितार्थ ( निश्चित कार्य के लिए भेजा गया, इत्वॉय), यह भी मन्त्री के बराबर रहता है किन्तु एक चौथाई
दूत
२०. नक्षत्रमति पृच्छन्तं बालमर्थोतिवर्तते । अर्थो ह्यर्थस्य नक्षत्रं किं करिष्यन्ति तारकाः । अर्थशास्त्र ६ |४| २१. अस्तब्धमवलीबमदीर्घसूत्रं सानुक्रोशं श्लक्ष्णमहार्यमन्यः । अरोगजातीय मुदारवाक्यं दूतं वदन्त्यष्टगुणोपपत्रम् | उद्योग० ३७/२७/
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