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धर्मशास्त्र का इतिहास प्रयुक्त किये जायें तो उन्हें ताम्र का ही समझा जाना चाहिए। अतः कौटिल्य द्वारा कहा हुआ वेतन ताम्र-पणों में ही भा। इस निष्कर्ष को हम कई बातों से सिद्ध कर सकते हैं। मनु (७/१२६) का कहना है कि निम्नतम श्रेणी के भृत्यों (यथा झाडू-बहारू करने वाले या पानी भरने वाले नौकर) को प्रति दिन एक पण, उससे उच्च भृत्य को प्रति दिन ६ पण मिलने चाहिए, किन्तु प्रथम श्रेणी के भृत्यों को प्रति छठे मास एक जोड़ा वस्त्र, प्रति मास एक द्रोण ( = १०२४ मुष्टि मिताक्षरा के अनुसार, याज्ञ ० ३।२७४) अन्न देना चाहिए। अर्थशास्त्र एवं मनुस्मृति का हम जो भी काल मानें, दोनों के कालों की देरी एक या दो शताब्दियों से अधिक की नहीं ।
देरी एक या दो शताब्दियों से अधिक की नहीं हो सकती। अतः यह कहा जा सकता है कि दोनों के सभयों की आर्थिक दशाओं में विशेष अन्तर नहीं पाया जा सकता। ऐसा कहना असम्भव-सा प्रतीत होता है कि निम्नतम: भृत्य को प्रति दिन सोने का एक पण मिलता था और साथ-ही-साथ प्रति दिन ३० मुष्टियाँ (एक मास में १०२४ मुष्टियाँ) अन्न भी। यदि ऐसी बात होती भी तो कौटिल्य के समय में निम्नतम श्रेणी का भृत्य आज के निम्नतम श्रेणी के भृत्यों से सैकड़ों गुना अधिक वेतन पाता । १६वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में बम्बई जैसे नगरों के निम्नतम श्रेणी के भृत्यों को बिना अन्न वाली ऊपरी आय के ५५ से १०) तक प्रति मास मिलता था। अतः कौटिल्य के पाँचवें अध्याय में पण सोने का नहीं है। कौटिल्य (५॥३) का कहना है कि यदि कोश खाली हो गया हो तो राजा अपने कर्मचारियों का वेतन वन में उत्पन्न सामग्री, पशु या भूमि के रूप में थोड़े सिक्कों के साथ दे सकता है। यदि राजा किसी ऊसर भूमि को आबाद कर रहा है तो उसे वेतन सिक्कों के रूप में देना चाहिए न कि ग्राम-दान के रूप में। इसी सिलसिले में कौटिल्य ने यह भी कहा है कि ६० पणों में अन्न का एक आइक मिलता है । एक आढ क = २५६ मुष्टि (मट्ठी) अन्न है। दुभिक्ष में भी एक आढक अन्न का मूल्य चाँदी के ६० पणों के बराबर नहीं हो सकता, सोने के पणों की बात तो निराली ही है। कौटिल्य (५॥३) ने घोषित किया है कि एक दूत को एक योजन यात्रा के लिए दस पण तथा इसके आगे १०० योजनों के लिए प्रति योजन पर २० पण मिलने चाहिए। कौटिल्य (२।२०) के अनुसार एक योजन ८,००० धनुओं (अन्य भाषान्तर के आधार पर ४,००० धनुओं) के बराबर होता है, एक धनु चार अरत्नियों के बराबर होता है (एक अरत्नि २४ अंगुल के बराबर होती है)। अतः अधिकतम अंक लेते हुए हम कह सकते हैं कि एक योजन ६ या १० मील के बराबर था (या केवल ४३ या ५ मील, दूसरे भाषान्तर के अनुसार) । तब यह कहना कि एक साधारण दूत को दस मील (जिसे वह आधे या इससे भी कम दिन में तय कर सकता है) जाने के लिए १० रजत-पण दिये जाते थे, तो यह पारिश्रमिक बहुत अधिक कहा जायगा। अतः कौटिल्य के कथन (५॥३) में जो पण है वह ताम्र-पण ही है। जब यह निर्णय हो जाता है कि कौटिल्य (१३) का पण ताम्र-पण है तो वेतन मासिक था इसमें कोई सन्देह नहीं है। कौटिल्य के कथनानुसार शिल्पकलाकारों एवं हस्तकलाकारों को १२० पण वेतन मिलता था। यदि यह वेतन वार्षिक होता तो उन्हें १० पण ही प्रति मास मिलता। अतः १२० ताम्र-पण मासिक वेतन था। वेतन भरसक मासिक रूप से ही दिया जाना अच्छा लगता है न कि वार्षिक। शंख लिखित जैसे लेखकों ने सैनिकों के लिए मासिक वेतन की व्यवस्था दी है (राजनीतिप्रकाश, पृ० २५२) । नासिक के १२वं शिलालेख (एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द ८, पृ० ८२) से पता चलता है कि ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में ३५ कार्षापण बराबर होते थे एक सुवर्ण के । अस्तु,
___क्रमशः पुरोहित की महत्ता में कमी आ गयी। आगे चलकर वह मत्रि-परिषद् से हट गया और उसका स्थान पण्डित ने ग्रहण कर लिया। बंगाल तथा अन्य देशों में उसके कार्यों को धर्माध्यक्ष या धर्माधिकरणिक करने लगे। मत्स्यपुराण (२१५॥२४) में धर्माधिकारी के गुणों का वर्णन है। और देखिए एपिप्रैफिया इण्डिका, जिल्द १४, १० १५६, बन्लालसेन का नैहाटी दान-पत्र, जिसमें पुरोहित एवं महाधर्माध्यक्ष दोनों के नाम हैं । परन्तु चेदिराज कर्णदेवलेख (एपि० इण्डि०, जिल्द २, पृ० ३०६) में महाधर्माधिकरणिक का नाम आया है किन्तु पुरोहित का नहीं। इन बातो के अतिरिवत एक अन्य अधिकारी ने, जिसका नाम 'सांवत्सर' (ज्योतिषी) था, पुरोहित के कुछ विभागों पर
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