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मुद्रा और वेतन का परिमाण
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एक ही प्रकार की मुद्रा से सम्बन्धित है, क्योंकि कौटिल्य ने कहीं भी विभिन्न अवधियों एवं धातुओं के विषय में कुछ भी नहीं कहा है । सामान्यतः 'पण' एवं 'कार्षापण' शब्द, जैसा कि मनु (८।१३६), मिताक्षरा ( याज्ञ० १।३६५ ) एवं शुक्र० (४।१।११६) ने कहा है, ताम्र मुद्राओं की ओर ही संकेत करते हैं । मनु ( ८1१३५ - १३६), विष्णुधर्म सूत्र ( ६।११-१२), याज्ञ० ( १।३६४ ) द्वारा उपस्थापित एक तालिका यह भी है--२ रक्तिकाएँ या कृष्णल = एक (रजत) भाष, १६ माष = एक (रजत) पुराण या धरण, १० धरण = एक (रजत) शतमान । यह तालिका चाँदी के सिक्कों के लिए है । इस प्रकार एक धरण = पल के के भाग के, जैसा कि बृहत्संहिता (१०।१३, पलदशभागो धरणम् ) ने लिखा है, बराबर है। नारद (परिशिष्ट ५७) ने स्पष्ट लिखा है कि चाँदी का कार्षापण दक्षिण में प्रचलित था, इससे व्यक्त होता है कि चाँदी का पण या कार्षापण सब स्थानों में नहीं था । एक सुवर्ण ८० गुजाओं के बराबर तथा एक रजत-पण ३२ गुजाओं के बराबर होता है । राइस डेविड्स ( बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ० १०० ) ने लिखा है कि बुद्ध के जन्म के आस-पास वस्तुओं का आदान-प्रदान कहापण ( कार्षापण ) में होता था जो चौखूटा ( वर्गाकार) चांदी का सिक्का था और तोल में १४४ ग्रेन के बराबर था, उस पर श्रेणियों एवं निगमों की मोहरें लगी रहती थीं। उस समय कार्षापण सिक्के के आधे एवं चौथाई भाग के भी सिक्के थे । १६
उपर्युक्त विवेचन से यह कहा जा सकता है कि जब पण या कार्षापण शब्द बिना किसी विशिष्ट उपाधि के
१६. सुवर्ण, शतमान, निष्क आदि के विषय में दो शब्द लिख देना आवश्यक जान पड़ता है। कृष्णल शब्द तैत्तिरीय संहिता ( २३२ १ ) में आया है । हिरण्यकार (सोनार) वाजसनेयी संहिता (३०।१७) में प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद में एक स्थल (१।१२६।२) पर एक सौ निष्कों एवं घोड़ों के दान का उल्लेख है और एक स्थल ( ४|३७|१ ) पर ऋभुओं को अच्छे frष्क धारण करनेवाले कहा गया | अथर्ववेद ( ५/१४/३ ) में 'निष्क' शब्द आया है। ऐतरेयब्राह्मण (३६/८) में "निष्ककण्ठोः " (जिनके कण्ठ निष्क के हारों से अलंकृत हैं) अप्सराओं को अन्य भेटों के साथ उल्लिखित किया गया है। अतः निष्क सम्भवतः एक सोने का खण्ड था जो मुद्रा या अलंकार के रूप में प्रयुक्त होता था । आज भी नारियाँ सोने के पत्तरों के सुन्दर-सुन्दर टुकड़ों से कण्ठहार बनवा कर पहनती हैं। ऋग्वेद ( २।३३।१० ) में रुद्र को 'विश्वरूप - निष्क' पहने व्यक्त किया गया है । सम्भवतः उस पर विभिन्न आकृतियों की मुहरें लगी थीं। एक स्थान ( ६।४७।२३) पर ऋषि का कथन है कि उसे दिवोदास से दस 'हिरण्यपिण्ड' मिले । ऋग्वेद में एक स्थल (८७८ २) पर इन्द्र से एक सोने के 'मन' की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की गयी है । सम्भवतः यह 'मन' शब्द 'शतमान' शब्द का अग्रे सर है । तैत्तिरीयसंहिता (६।६।१०।२ ) में भी यह शब्द आया है । पाणिनि (५।१।२७, २८, ३० ) ने क्रम से शतमान ( एक शतमान से जो क्रय किया जाता है उसे शातमान कहा जाता है), कार्षापण, निष्क का उल्लेख किया है और दूसरे स्थल ( ५।१।३४ ) पर पण, पाद एवं माष की ओर संकेत किया है। पतञ्जलि ( महाभाष्य, जिल्द ३, पृ० ३६६, पाणिनि ८।१।१२ ) ने दृष्टान्त दिया है "इस कार्षापण से यहाँ वाले दो व्यक्तियों को एक-एक माष दो ।" पाणिनिका ५।२।१२० सूत्र ( रूपाद् - आहतप्रशस्तयोर्-यप्) बताता है कि उन्हें यह ज्ञात था कि धातु के खण्ड पीट-पीट कर लम्बे-चौड़े किये जाते थे और उनसे सुन्दर बारी या किनारों वाले अर्थात् सुन्दर दीखने वाले सिक्के बनाये जाते थे । पाणिनि के ५।१।३३ संख्यक सूत्र के "काकिण्याश्चोपसंख्यानम्" वार्तिक से प्रकट होता है कि काकिणी उन दिनों सामान क्रय करने का एक माध्यम थी । काशिका में "रूप्यो दीनारः" एक उदाहरण आता है; 'निघातिकाताडनादिना दीनारादिषु रूपं यदुत्पद्यते तदाहतमित्युच्यते । आहतं रूपमस्य रूप्यो दीनारः । रूप्यं कार्षापणम् ।' काशिका |
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