________________
६३२
धर्मशास्त्र का इतिहास
के उपरान्त राजा को सब के अन्त में पुरोहित से सम्मति लेनी चाहिए । नीतिवाक्यामृत (पुरोहित समुद्देश, पृ० १६०) के अनुसार देवी आपत्तियां ये हैं---अग्निवर्षा (विद्युत्पात ?), अति वृष्टि, महामारी, दुभिक्ष, मस्योपघात (अनाजों का रोग), टिड्डी-दल, व्याधि, भूत, पिशाच एवं डाकिनी, सर्प, वनैले हाथी, चूहे । पुरोहित को पाँच प्रकार के कल्प-विधान (शास्त्रोक्त विधि-क्रिया) का ज्ञान होना चाहिए, यथा--नक्षत्रों को प्रसन्न रखने, श्रौत यशों, संहिताओं (तंत्र-पूजा), अथर्वशिरों तथा शान्ति का कल्प ।१८कामन्दक (१३।२०.२१) के अनुसार आपदाएँ दो हैं; देवी एवं मानुषी, जिनमें प्रथम के पाँच प्रकार हैं-अग्नि बाढ़, रोग, दुभिक्ष एवं महामारी, जिन्हें मानवीय उद्योगों तथा शमन-क्रियाओं से दूर किया जा सकता है, किन्तु मानुषी आपदाएँ सतत प्रयत्नों एवं सम्यक नीति-निर्धारण से दूर की जा सकती हैं। ये बातें अग्निपुराण (२४१।१४-१६) में भी ज्यों-की-त्यों पायी जाती हैं।
कौटिल्य (५॥३) के अनुसार राजकीय यज्ञ कराने वाले ऋत्विक् (पूजक), आचार्य (गुरु), मन्त्री, पुरोहित, सेनापति, युवराज, राजमाता एवं रानियों का ४८,००० पण वेतन होता था । कौटिल्य ने वहीं यह भी कहा है कि इतने बड़े वेतन के भोगी होने के कारण ये लोग (राजा के विरुद्ध) षड्यन्त्र नहीं करेंगे और न प्रलोभन में फंसेंगे । मनु (८।३३५ एवं ६।२३४) के मत से अनुचित मार्ग पर जाने से अमात्यों, न्यायाधीश और यहाँ तक कि पुरोहित को भी दण्डित होना पड़ता है। कौटिल्य (६३) का कहना है कि यदि पुरोहित भी अपराध में पकड़ा जाय तो उसे बन्दी बना लेना चाहिए या निर्वासित कर देना चाहिए । बहुत-से बड़े-बड़े मन्त्री (पुरोहित के अतिरिक्त) विद्वान् ब्राह्मण थे और सरल जीवन व्यतीत करते थे, यथा चाणक्य एवं माधव । अर्थशास्त्र में उल्लिखित वेतन के विषय में कई एक मत हैं। डा० जायसवाल (हिन्दू पॉलिटी, भाग २, पृ० १३६) ने लिखा है कि वेतन वार्षिक थाऔर चाँदी के सिक्कों में दिया जाता था। प्रो० दीक्षितार (मौर्यन पालिटी, पृ० १५१) ने लिखा है कि वेतन मासिक था। इस मतभेद का प्रमुख कारण है पण का सोने, चांदी एवं ताम्र नामक तीनों धातुओं में होना। रावबहादुर के० बी० रंगस्वामी आयंगर का मत है कि अर्थशास्त्र में उल्लिखित वेतन मासिक था और वह भी सोने के पणों में (ऐंश्येण्ट इण्डियन पॉलिटी, पृ० ४४४५) । अब हम इस विषय की खोज करेंगे ।
__ मनु के समय में ताम्र, चांदी एवं सोने के सिक्कों का प्रचलन था। मनु (८।१३४ एवं १३६), विष्णुधर्मसूत्र (४।६-१०) एवं याज्ञ० (१।३६३-३६५) के अनुसार ५ कृष्णल बराबर होते हैं एक माष के, १६ माष बराबर होते हैं एक सूवर्ण के, ४ (या कुछ लोगों के मत से ५) सुवर्ण बराबर होते हैं एक पल के, एक कर्ष वराब चौथाई के, ताम्र का टुकड़ा जिसकी तौल पल की चौथाई के बराबर होतो है, पण कहलाता है। वही कार्षापण भी है। कार्षापण बराबर होता है ८० रक्तिकाओं या गुजा दाने के। एक पल ३२० रक्तिकाओं के बराबर था । यही बात कौटिल्य ने भी कही है (२।१६) । कौटिल्य (५३) में वेतन क्रम ४८,००० पणों से ६० पणों तक है जो क्रम से सर्वोच्च पदाधिकारी से लेकर निम्न कोटि के भृत्यों तक चला गया है । यह वेतन-क्रम सभी के लिए एक ही प्रकार की अवधि तथा
१८. पञ्चकल्पविधानज्ञ वरयेत्तु सुदर्शनम् । नक्षत्रकल्पो वैतानस्तृतीयः संहिताविधिः । चतुर्थः शिरसां कल्पः शान्तिकल्पस्तु पञ्चमः ॥ पञ्चकल्पविधानज्ञमाचार्य प्राप्य भूपतिः । सर्वोत्पात प्रशान्तात्मा भुनक्ति वसुधां चिरम् ॥ विष्णुधर्मोत्तर २।५॥३-५(राजनीतिकौस्तुभ, पृ० २५६ में उद्धत)। 'शिरस्' का अर्थ है अथर्वशिरस् जो एक उपनिषद्कल्प है जिसका उल्लेख गौतम (१६१२), वसिष्ठ (२८।१४), विष्णुधर्मसूत्र (५६।२२) ने उन वैदिक विधानों में किया है जिनसे व्यक्ति पापों से मुक्त होते हैं । इसका आरम्भ यों होता है--"देवा ह वै स्वर्ग लोकमगमंस्ते देवा खमपृच्छन् को भवानिति ।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
F
www.jainelibrary.org