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पुरोहित के कर्तव्य
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हास, धर्मशास्त्र या दण्डनीति, ज्योतिष एवं भविष्यवाणी-शास्त्र तथा अथर्ववेद में पाये जाने वाले शान्तिक संस्कारों में पारंगत होना चाहिए, उच्च कुल का होना चाहिए और होना चाहिए शास्त्रों में वर्णित विद्याओं एवं शुभ कर्मों में प्रवीण एवं तपःपूत । कोटिल्य (१६) ने भी अधिकांश में ये ही बातें कही हैं और कहा है कि राजा को उसकी सम्मति का आदर उसी प्रकार करना चाहिए जिस प्रकार शिष्य गुरु की बात का, पुत्र पिता की बात का,नौकर स्वामी की बात का करता है। कौटिल्य ने यह भी कहा है कि ब्राह्मण द्वारा बढ़ायी गयी, मन्त्रियों द्वारा मन्त्र दृढीकृत, शास्त्रविहित नियमों के समान शास्त्रों से सज्जित राज्य-शक्ति दुर्दमनीय एवं विजयी हो जाती है । और देखिए आदिपर्व (१७०। ७४-७५, १७४।१४-१५), शान्ति० (७२।२ १८ एवं अध्याय ७३), राजनीतिप्रकाश (पृ० ५६-६१ एवं १३६-१३७), राजधर्मकौस्तुभ (प० २५५-२५७) जहाँ पुरोहित की पात्रता या गुण-विशिष्टता का उल्लेख किया गया है। कौटिल्य (१०।३) का कथन है कि युद्ध चलते समय प्रधान मन्त्री एवं पुरोहित को चाहिए कि वे वेदमन्त्रों एवं संस्कृत-साहित्य के उद्धरणों द्वारा सैनिकों का उत्साहवर्धन करते रहें और मरने वालों के लिए दूसरे जन्म में अच्छे पुरस्कारों की घोषणा करते रहें । शुक्रनीतिसार (२।७८-८०) का कथन है कि पुरोहित को अन्य गुणों के साथ धनुर्वेद का जानकार, अस्त्रशास्त्र में निपुण, युद्ध के लिए सेना की टुकड़ियाँ बनाने में दक्ष तथा प्रभावशाली धार्मिक बल वाला (जिससे वह शाप भी दे सके) होना चाहिए। पुरोहित ऋत्विक नहीं है जो मात्र यज्ञ कराने वाला होता है (देखिए मनु ७१७८ एवं याज्ञ. १।३१४) । पुरोहित के विषय में अन्य ज्ञातव्य बातों के लिए देखिए मानसोल्लास (२।२।६०, पृ.० ६४), राजनीतिरत्नाकर (पृ० १६-१७), विष्णुधर्मोत्तर (१।५), अग्नि० (२३६।१६-१७) आदि । कुछ ग्रन्थकारों ने पुरोहित को अमात्यों या मन्त्रियों (विज्ञानेश्वर, याज्ञ० १।३५३, शुक्र० २।६६-७०) में गिना है और कुछ ने उसे मन्त्रियों से भिन्न माना है (याज्ञ० ११३१२) । कौटिल्य के अनुसार उसे अथर्ववेद में उल्लिखित उपायों या साधनों से मानुषी एवं दैवी विपत्तियों को दूर करना चाहिए। कौटिल्य (४३) के अनुसार भयंकर देवी विपत्तियाँ हैं अग्नि, बाढ़, रोग, अकाल, चूहे, जंगली हाथी, सर्प एवं भूत-प्रेत।१७ मनु (७।७८) के अनुसार पुरोहित का कार्य था श्रोत एवं गृह्य सूत्रों से सम्बन्धित धार्मिक कृत्य करना; और आपस्तम्ब (२।५।१०।१४-१७) के अनुसार पुरोहित को अपराध करने वालों के लिए प्रायश्चित्त-व्यवस्था देने का पूर्ण अधिकार था। वसिष्ठ (१६।४०-४२) का कहना है कि यदि अपराधी छूट जाय तो राजा को एक तथा पुरोहित को तीन दिनों तक उपवास करना पड़ता था। किन्तु यदि राजा निरपराध को दण्ड दे दे तो पुरोहित को कृच्छ नामक प्रायश्चित करना पड़ता था। अधिकांश लेखकों का यही कहना है कि उसका कार्य अधिकतया धार्मिक ही था। न्याय-शासन की सभा के दस अंगों में उसका उल्लेख नहीं हुआ है। सरस्वतीविलास (पृ.० २०) द्वारा उद्धृत कात्यायन के अनुसार पुरोहित को अर्थशास्त्र में पारंगत होना आवश्यक नहीं है, किन्तु मिताक्षरा (याज्ञ० २।२) एवं स्मृति चन्द्रिका (२, पृ० १४) द्वारा उद्धृत कात्यायन के मत से राजा को न्याय-भवन में विज्ञ ब्राह्मणों, मन्त्रियों, मुख्य न्यायाधीश, पुरोहित आदि के साथ प्रवेश करना चाहिए । याज्ञ० (११३१२) एवं मिताक्षरा (याज्ञ. १।३१२-३१३) के अनुसार लौकिक (व्यावहारिक) एवं धार्मिक बातों में सब मन्त्रियों से परामर्श ले लेने
शास्त्रानुगमशस्त्रितम् ॥ कौटिल्य १६; राजा पुरोहितं कुर्यादुदितं ब्राह्मण हितम् । कृताध्ययनसंपन्नमलुब्धं सत्यवादिनम् ॥ कात्यायन (सरस्वतीविलास, पृ० २० में उद्धृत)।
१७. वैवान्यष्टौ महाभयानि-अग्निरुदकं व्याधिर्दुभिक्ष मूषिका व्यालाः सर्पा रक्षांसीति । तेभ्यो जनपदं रक्षेत् । अर्थशास्त्र ४।३; अमानुष्योग्निवर्षमतिवर्ष मरकी (मरको?) भिक्षं सस्योपधातो जन्तुसर्गो व्याधिर्भूत पिशाचशाकिनीसर्पच्यालमूषकाश्चेत्यापदः ।। नीतिवाक्यामृत (पृ० १६०) ।
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