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धर्मशास्त्र का इतिहास
पता चलता है कि जब पुष्यमिन भारतवर्ष का वास्तविक सम्राट् था तो उसका पुत्र अग्निमिन विदिशा में शासक था और उसको इतना अधिकार प्राप्त था कि वह बरार के राज्य को यज्ञसेन एवं माधवसेन नामक दो भाइयों में बाँट सकता था। इसे हमने द्वैराज्य के लिए उदाहरण-स्वरूप भी प्रस्तुत किया है (देखिए गत अध्याय)। युवराज का उल्लेख सामान्यत: मन्त्रियों की सूची में नहीं मिलता, किन्तु वह १८ तीर्थों में एक है और शुक्र ० (२।३६२-३७०) से पता चलता है कि महत्त्वपूर्ण विषय अन्य मन्त्रियों की भाँति उससे भी स्वीकृत होकर निकलते थे और वह अपनी मुहर प्रयोग में लाता था। शुक्र ० (२।१२) का कहना है कि युवराज एव अमात्य-दल राजा के दो बाहु या आँखें हैं, किन्तु उसने चेतावनी दी है कि मृत्यु के समय को छोड़कर राजा को चाहिए वह उन्हें सम्पूर्ण राज्य-शक्ति कभी भी न दे (५।१७) । मत्स्यपुराण (२२०१७) का कहना है कि राजा को चाहिए कि वह अनुशासित राजकुमार को पहले कम महत्त्वपूर्ण कार्य सौंपे, तब क्रमशः अति महत्त्वपूर्ण कार्य बाद में सौंपे (बधभूषण द्वारा प० ३३ में उद्धत)। यदि राजकुमार अविनीत हो तो उसे त्याग नहीं देना चाहिए, नहीं तो वह शत्रुओं से मिल जायगा; उसे एक सुरक्षित स्थान में बन्दी बनाकर रखना चाहिए (कामन्दक ७।६, बुधभूषण पृ०, ३३, ३५, श्लोक ७७, ६३) । जहाँ तक वेतन का प्रश्न है, वह उसे मन्त्री, पुरोहित, सेनापति, रानी एवं राजमाता के समान ही मिलता था (कौटिल्य ५॥३) । कुमारामात्य के पद के विषय में (गुप्ताभिलेख, १० १०, ५०, एपिरॅफिया इण्डिका, जिल्द १०, पृ०७२; वही, जिल्द ११, पृ० ८३) अभी तक हमें स्पष्ट रूप से कुछ नहीं ज्ञात है। सम्भवतः इसका अर्थ "एक राजकुमार जो अमात्य भी है" नहीं है। हो सकता है इसका अर्थ है कोई अमात्य जो युवराज के साथ लगा हुआ है, जैसा कि 'राजामात्य' (गुप्ताभिलख, पृ० २१८) शब्द से भी प्रकट होता है। ऐसा लगता है कि प्राचीन काल में प्रान्तीय शासकों का राजकुल से कोई सम्बन्ध नहीं था। रद्रदामा के जूनागढ़-अभिलेख से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में सुराष्ट्र का शासक था पुष्यगुप्त नामक एक वैश्य और अशोक के समय में वहाँ का शासक था तुषास्प नामक एक यवन (एपिग्रेफिया इण्डिका, जिल्द ८,१०३६)।
पुरोहित-हमने इस ग्रन्थ के भाग २, अध्याय २ में देख लिया है कि पुरोहित का पद ऋग्वेद-काल से चला आया है, वह राजा के आत्मा का अर्ध भाग समझा जाता था। राज्य की समृद्धि के लिए आध्यात्मिक गुरु एवं धर्मनिरपेक्ष राजा का सहयोग अत्यन्त आवश्यक समझा जाता रहा है। गौतम (११।१२-१४) एवं आपस्तम्बधर्म सूत्र (२।५।१०।१६) ने पुरोहित के गुणों की तालिका उपस्थित की है। हमारे प्रामाणिक ग्रन्थों से पता चलता है कि पुरोहित केवल याजक या पुजारी नहीं था । ऐतरेय ब्राह्मण (४०।२) ने पुरोहित को "राष्ट्रगोप" (राज्य का रक्षक) कहा है। शुक्रनीति (२०७४) ने भी, यद्यपि यह अर्वाचीन काल का ग्रन्थ है, पुरोहित को वैसा ही कहा है, यथा--'राजराष्ट्रभूत्' (राजा एवं राष्ट्र का सहायक)। ऋग्वेद (३३५३।१२) में आया है कि पुरोहित विश्वामिन के मन्त्र तथा उनकी आध्यात्मिक शक्ति ने भरतकुल की रक्षा की।१५ विश्वामित्र ने राजा को युद्ध के लिए सन्नद्ध किया और "जहाँ तीर उड़ते हैं, आदि..." (ऋ० ६।७५।१७) का पाठ करते हुए वे स्वयं राजा के साथ युद्ध में गये (देखिए आश्वलायनगृह्यसूत्र १२।१६७) । विष्णु धर्मसूत्र (३।७०), याज्ञ० (१।३१३), कामन्दक (४।३२) के अनुसार पुरोहित को१६ वेदों, इति
१५. विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मदं भारत जनम । ऋ० ३१५३।१२।
१६. वेदेतिहासधर्मशास्त्रार्थकुशलं कुलीनमव्यंग तपस्विन पुरोहितं च वरयेत् । विष्णुधर्मसूत्र (३७०); पुरोहितं प्रकुर्वीत दैवज्ञमुदितोदितम् । दण्डनीत्यां च कुशलमथर्वागिरसे तथा ।। याज्ञ. १।३१३; पुरोहितमुदितोदितकुलशीलं षडङ्ग वेदे दैवे निमित्त दण्डनीत्यां चाभिविनीतमापदां देवमानुषीणामथर्वभिरुपायैश्च प्रतिकर्तारं कुर्वीत । तमाचार्य शिष्यः पितरं पुत्रोभृत्यःस्वामिनमिव चानुवर्तेत ।"ब्राह्मणेनै धितं क्षत्र मन्त्रिमन्त्राभिमन्त्रितम् । जयत्यजितमत्यन्तं
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