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________________ मन्त्रियों के पद तथा विभागीय कार्यविधि ६२६ राजतरंगिणी (१।१२०) का कहना है कि प्राचीन काल में केवल ७ विभाग (कर्मस्थान) थे किन्तु कालान्तर में वे १८ हो गये, और आगे चलकर इनमें ५ और जोड़ दिये गये । (४।१४२-१४३ एवं ५१२), यथा--महाप्रतिहार,महासांधिविग्रह, महाश्वशाल, महाभाण्डागार, महासाधनभाग, और इनके पदाधिकारियों को अधिगत-पंचमहाशब्द कहा गया। शुक्रनीतिसार (२०६६-७०-२,७४-७७, २।२७६,२१८४-८७,८८-१०५ आदि) ने विशद रूप से उच्च पदाधिकरियों के नाम, उनके वेतन तथा अन्य अधिकारियों के वेतन के विषय में लिखा है, जिसे हम विस्तार-भय से यहाँ छोड़ रहे हैं। शुक्र० (१।३५३-३६१) ने राजा के दरबार का भी वर्णन किया है और दर्शाया है कि कौन-कौन कहाँ-कहाँ बैठते हैं। शक्र० (११३७४-३७६) ने राजा के कर्तव्यों के तथा उसके अधिकारीगण-सम्बन्धी कार्यों के विषय में भी विस्तार के साथ लिखा है। एक अधिकारी एक स्थान पर तथा एक ही विभाग में बहुत दिनों तक न रहने पाये, नहीं तो शक्ति-मोह उत्पन्न हो जायगा। राजा को सदा लिखित आज्ञा देनी चाहिए (२।२६०)। इसी प्रकार बहुत-से निर्देश शक्रनीतिसार में पाये जाते हैं। अशोक के ये शब्द "पंचसु पंचसु वासेसु नियातु"सम्भवतः उच्च पदाधिकारियों के पंचवार्षिक स्थानान्तरणों की ओर संकेत करते हैं। सिद्धान्त एवं व्यवहार में राजा अपना आदेश मन्त्रियों की सम्मति या उपस्थिति में निकालता था। पूर्वी चालुक्य वंश के राजा राजराज प्रथम के एक दानपत्र से पता चलता है कि उसने मन्त्री, पुरोहित, सेनापति, युवराज, दौवारिक एव प्रधान की उपस्थिति में वह दानपत्र निकाला था। शुक्रनीतिसार (२।३६२-३७०) ने आदेश निकालने के विषय में यह विधि बतायी है-- सर्वप्रथम मन्त्री, प्राविधाक (मुख्य न्यायाधीश), पण्डित (धर्माध्यक्ष) एवं दूत अपने विभागों से सम्बन्धित बातें लिखते हैं जिसे देखकर अमात्य उस पर “साधु लेखनमस्ति'' (अच्छा लिखा है) लिख देता है, उस पर सुमन्त "सम्यग् विचारितम्" (ठीक से सोचा-विचारा गया है) लिख देता है, तब प्रधान लिखता है--"सत्यं यथार्थम्" (यह सत्य है, यह कार्य के अनुकूल ही है), फिर प्रतिनिधि लिखता है--"अंगीक योग्यम्" (स्वीकार करने योग्य है), उस पर युवराज लिखता है - "अंगीकर्तव्यम्" (यह स्वीकार कर लिया जाय), तब पुरोहित लिखता है--"लेख्य स्वाभिमतम्" (मैं इसका अनुमोदन करता हूँ) । सभी लोग ऐसा लिखकर अपनी मुहर लगाते हैं और तब राजा लिखता है--"अंगीकृतम्" (स्वीकृत हो गया) और अपनी मुहर लगा देता है। राजतरंगिणी (५।७३) में आया है कि कभी-कभी नीच कुल के व्यक्ति भी मन्त्रि-पद पर पहुँच जाते हैं । अवन्तिवर्मा का अभियन्ता (इंजीनियर) एक अपवित्र बालक था। इसी प्रकार एक चौकीदार आगे चलकर मुख्य मंत्री बन गया (७।२०७)। युवराज-राज्य के कतिपय बड़े अधिकारियों के विषय में कुछ लिख देना आवश्यक है। पहले हम युवराज पर लिखते हैं । कौटिल्य ने एक पूरा अध्याय (१।१७) राजकुमार के विषय में सावधानता प्रदर्शित करने के लिए लिख दिया है। हमने राजकुमार की शिक्षा, राज्य-व्यापार से उसके सम्बन्ध, राजकुमारों के साथ व्यवहार, अच्छे या बुरे युवराज के राज्याभिषेक पर पहले ही (गत अध्याय में) लिख दिया है। राजा के शासन-काल में ही छोटा भाई या ज्येष्ठ पुत्र युवराज घोषित हो जाता था (अयोध्या०, अध्याय ३-६, काम० ७१६, शुक्र० २।१४-१६) । राम ने राजा होने के अभिषेक के दिन लक्ष्मण के अस्वीकार करने पर भरत को युवराज बनाया (युद्धकाण्ड १३१।६३) । राज्य के विभिन्न भागों में युवराज तथा राजकुमार राज्यपाल (प्रान्तीय शासक) बनाकर भेजे जाते थे । दिव्यावदान (२६, पृ०३७) में आया है कि अपने पिता बिन्दुसार द्वारा अशोक तक्षशिला में शासक बनाकर भेजा गया था और स्वयं अशोक ने अपने पत्र कणाल को वहां पर(अमात्यों के अत्याचार होने से विद्रोह उठ खड़ा होने पर भेजा था (प.० ४०७-८)। हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि स्वयं खारवेल नौ वर्षों तक युवराज-पद पर अवस्थित था। मालविकाग्निमित्र से Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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