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________________ ६२८ धर्मशास्त्र का इतिहास विनिपात-प्रतीकार (बाधाओं को दूर करने के उपाय), कार्यसिद्धि (अर्थात् कार्य सिद्ध हो जाने पर राजा एवं प्रजा का सुख)।१२ विभिन्न कालों में विभिन्न उच्च पदाधिकारी एवं कार्यालय-प्रतिपालक रहे हैं। वैदिक काल में राजसूय के सम्पादन में कुछ ऐसी आहुतियाँ (सामान्यतः १२ आहुतियाँ)होतो थी जो "रनिना हवीषि" कही जाती थीं। उनके नामों एवं क्रमो में कालान्तर में कुछ हेर-फेर हो गया है, किन्तु बहुधा वे सभी ग्रन्थों में उसी रूप से पायी जाती हैं । राजा (यजमान) के अतिरिक्त ११ रत्नी लोग ये हैं--सेनापति, पुरोहित, बड़ी रानी, सूत ग्रामणी (मुखिया), क्षत्ता (कंचुकी), संगृहीता (कोषाध्यक्ष), अक्षावाप (लेखाध्यक्ष), भागदुघ (करादाता), गोविकर्तन, दूत, परिवृवित (त्यागी हुई रानी) (शतपथ ब्राह्मण ५॥३॥२) तैत्तिरीय ब्राह्मण ( १।७।३) में इन रत्नियों को राज्य के दाता कहा गया है (एते वै राष्ट्रस्य प्रदातारः) । शतपथ ब्राह्मण (५।३।२।२) की तालिका से स्पष्ट है कि सेनापति एवं गोविकर्तन-जैसे रत्नी लोग शूद्र थे। कालान्तर में कुछ पदाधिकारी तीर्थ नाम से पुकारे जाने लगे और उनकी संख्या १८ हो गयी (देखिए सभापर्व ५॥३८ = अयोध्याकाण्ड १००।३६ एवं शान्ति० ६६५२) ।१३ कौटिल्य (१।१२) ने अठारह तीर्थों के नाम दियं हैं।१४ रघुवंश (१७४६८) में कालिदास ने तीर्थ शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त किया है। नोतिवावयामत (१० २६) के कथनानुसार वे सहायक जो धर्म एव राज्य के विषय में सहायता देते हैं, तीर्थ कहलाते है। अशोक के शिलालेखों में उच्च पदाधिकारी को महामात्र (तेरहवें शिलालेख में धर्ममहामात्रों का भी उल्लेख है) तथा अन्य अधिकारियों को युक्त, राजुक एवं प्रादेशिक कहा गया है। युवत लोग मन्त्रि-परिषद् के नीचे के अधिकारी थे। आगे चलकर लेखकों ने, यथा अयोध्याकाण्ड (१००। ३६) की टीका में गोविन्दराज ने तथा यशस्तिलक (१, पृ०६१) की टीका ने तीर्थों के नामों में अन्तर दिखाये हैं। १२. कर्मणामारम्भोपायः, पुरुषद्रव्यसम्पत, देशकालविभागः, विनिपातप्रतीकारः, कार्यसिद्धिरिति पञ्चाङ्गो मन्त्र. । अर्थशास्त्र १११५; सहाया साधनोपाया विभागो देशकालयोः । विपत्तेश्च प्रतीकारो मन्त्रः पञ्चाङ्ग इष्यते ॥ कामन्दक (१०।५६)। यहां यह ज्ञातव्य है कि कामन्दक ने 'कार्यसिद्धि' नामक अंग छोड़ दिया है, किन्तु 'देशविभाग' एवं 'कालविभाग' को अलग-अलग करके पाँच संख्या प्रस्तुत कर दी है। १३. कच्चिदष्टादशान्येष स्वपक्षे दश पञ्च च । त्रिभिस्त्रिभिरविज्ञातंर्वेत्सि तीर्थानि चारकः ॥ अयोध्या० १००।३६ = सभा० ५२८८ नीतिप्रकाशिका १३५२। १४.तानाजास्वविषयेमन्त्रि-पुरोहित-सेनापति-युवराज-दौवारिकान्तर्वशिक-प्रशास्तृ-समाहर्तृ-संनिधातृ-प्रदेष्टनायक-पौरव्यावहारिक-कार्मान्तिक-मन्त्रिपरिषदध्यक्ष-दण्डदुर्गान्तपालाटविकेषु श्रद्धेयदेशवेषशिल्पभाषाभिजनापदेशान् भक्तितः सामर्थ्य योगाच्चापसर्पयेत् ।...एवं शत्रौ च मित्रे च मध्यमे चावपेच्चरान । उदासीने च तेषां च तीर्थेष्वष्टादशस्वपि ॥ अर्थशास्त्र १।१२। दौवारिक द्वारपाल है अर्थात् राजप्रासाद का द्वाररक्षक; आन्तर्वशिक आश्वमेधिक पर्व। २२।२०) एवं शल्य०(२६७२ एवं६४)में स्त्यध्यक्ष या कलत्राध्यक्ष कहा गया है और इसी को अशोक के शिलालेख (गिरनार या मनसेरा के १२वें शिलालेख) में स्त्र्यध्यक्ष महामात्र कहा गया है; मत्स्य पुराण (२१५५४२) में अन्तःपुराध्यक्ष भी इसी का घोतक है । प्रशास्ता सम्भवतः न्यायाध्यक्ष है। समाहर्ता स्वायत्त-मन्त्री है । सन्निधाता कोशपाल है । प्रदेष्टा का कार्य अभी अज्ञात है । नायक सम्भवतः नगराध्यक्ष है । पौर-व्यावहारिक प्रमुख न्यायाधीश है जो राजधानी में रहता था । कार्मान्तिक सभी खानों एवं मनुष्य-निर्मित वस्तुओं का अधीक्षक था। दण्डपाल सेना के सभी विभागों का अधिकारी था । दुर्गपाल (राष्ट्रपाल ) सभी दुर्गों का अधिकारी था । अन्तपाल सीमा-प्रान्तों का अधिकारी था । आटविक वन एवं वनवासी लोगों का अधीक्षक था । प्रदेष्ट्रनायक सम्भवतः कई प्रदेष्टाओं का नायकथा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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