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मन्त्रणा-पद्धति
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मनु (७५८-५६) ने एंसे विषयों की तालिका दी है जिनके बारे में मन्त्रियों से मन्त्रणा करना आवश्यक है, यथा---शान्ति एवं युद्ध,स्थान (सेना, कोश, राजधानी एवं राष्ट्र या देश),कर के उद्गम, रक्षा (राजा एवं देश की रक्षा), पाये हुए धन को रखना या उसका वितरण। राजा को मन्त्रियों की सम्मति लेना अनिवार्य है, पृथक्-पृथक् रूप में या सम्मिलित रूप में सम्मति लेकर जो लाभप्रद हो वही करना चाहिए। राजाको अन्त में, नोतिविषयक छ: साधनों के सम्बन्ध में (जो अति महत्वपूर्ण बातें हों, उनके विषय में) किसी विज्ञ ब्राह्मण से (जो मन्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ हो) परामर्श करना चाहिए और उस पर विश्वास करना चाहिए एवं नीति की सभी बातों में उसकी सहमति से निर्णय करना चाहिए। याज्ञ० ( १।३१२) भी चाहते हैं कि राजा मन्त्रियों से मन्त्रणा लेकर किसी ब्राह्मण (पुरोहित) से सम्मति ले, तब स्वयं कार्य-निर्णय करे । कामन्दक (१३।२३-२४ == अग्निपुराण २४१।१६-१८) के अनुसार मन्त्रियों के सोचने के मुख्य विषय ये हैं---मन्त्र, निर्धारित नीति से उत्पन्न फल की प्राप्ति (यथा किसी देश को जीतना और उसकी रक्षा करना), राज्य के कार्य करना, किसी किये जाने वाले कार्य के अच्छे रे प्रभावों के विषय में भविष्यवाणी करना, आय एवं व्यय, शासन (दण्डनीय को दण्ड देना), शत्रओं को दबाना, अकाल जैसी विपत्तियों के समय उपाय करना, राजा एवं राज्य की रक्षा करना ।
याश० (११३४३) का कथन है--"राज्य मन्त्र (मन्तियों के साथ मन्त्रणा एवं विचार-विमर्श तथा परामर्श करने के उपरान्त नीति-निर्धारण)पर निर्भर है, अतः राजा को अपनी नीति इस प्रकार गोपनीय रखनी चाहिए कि लोग उसे तब तक न जानें जब तक कार्य के फल स्वयं न प्रकट होने लगे।" कौटिल्य (१०।६) ने मन्त्र का महत्त्व समझाया है; एक छोड़ा गया तीर किसी को मार सकता है या किसी को भी नहीं मार सकता अर्थात् चूक जा सकता है, किन्तु विज्ञ द्वारा निर्णीत कोई योजना उनको भी नष्ट कर सकती है जिनका अभी बीजारोपण मात्र हुआ है। सभापर्व (५।२७) एवं अयोध्याकाण्ड (१००।१६) में एक ही बात पायी जाती है; "मन्त्र विजय का मूल है।"१० कौटिल्य एवं नीतिवाक्य मृत (पृ० ११४) का कथन है कि मन्त्र से निम्नलिखित कार्य होते हैं--"जो न प्राप्त किया जा सका हो उसका शान, जो प्राप्त किया जा चका हो उसको निश्चित बल देना, द्विधा में सन्देह मिटाना, एक ही अंश को देखकर सम्पूर्ण बात की कल्पना कर लेना।"११ बहुत-से ग्रन्थों, यथा--कौटिल्य (१।१५), कामन्दक (११:५६), अग्निपुराण (२४१।४), पञ्चतन्त्र (१, पृ.० ८५), मानसोल्लास (२२६६६७) में कहा गया है कि मन्त्र के पाँच तत्त्व होते हैं, जिन पर विचार करना चाहिए --- कर्म के आरम्भ का उपाय, मनुष्य एवं प्रचुर सम्पत्ति, देशकाल विभाग,
८. मन्त्री मन्त्रफलावाप्तिः कार्यानुष्ठानमायतिः । आयव्ययौ दण्डनीतिरमित्रप्रतिषेधनम् ॥ व्यसनस्य प्रतीकारो राजराज्याभिरक्षणम् । इत्यमात्यस्य कर्मेदं हन्ति स व्यसनान्वितः॥ कामन्दक (१३।२३-२४ = अग्नि २४१।१६-१८); आयो व्ययः स्वामिरक्षा तन्त्रपोषण चापात्यानामधिकारः। नीतिवाक्यामृत (अमात्यसमुद्देश), पृ० १८५।
६. एक हन्यान्न वा हन्यादिषुः क्षिप्तो धनुष्मता । प्राज्ञ न तु मतिः क्षिप्ता हन्याद् गर्भगतानपि ॥ अर्थशास्त्र १०।६; उत्तरार्ध यशस्तिलक (३, पृ० ३८६) द्वारा भी उद्धत है ।
१०. मन्त्री विजयमूलं हि राज्ञां भवति राघव । अयोध्याकाण्ड १००।१६; विजयो मन्त्रमूलो हि राज्ञां भवति भारत । सभा० ५।२७।।
११. अनुपलब्धस्य ज्ञानमुपलब्धस्य निश्चयबलाधानमर्थव धस्य संशयोच्छेदमेकदेशदृष्टस्य शेषोपलब्धिरिति मन्त्रसाध्यमेतत् । तस्माद् बुद्धिवृद्धः सार्धमासीत मन्त्रम् । अर्थशास्त्र, ११४५ एवं नीतिवाक्यामृत, १० ११४ ।
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