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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास नागसेन का नाश पद्यावती में इस कारण हुआ कि उसका गुप्त रहस्य एक मैना द्वारा प्रकट कर दिया गया था, श्रुतवर्मा ने अपना राज्य श्रावस्ती में इसलिए खो दिया कि उसका रहस्य एक तोते ने खोल दिया था, राजा सुवर्णचुड़ ने मृत्तिकावती में प्राण इसलिए गँवाये कि वह अपनी नीति के विषय में स्वप्नावस्था में बड़बड़ा उठा था। और देखिए मनु (७.१४७१५०), याज्ञ० (१।३४४), कामन्दक (११।५३,६५-६६), अग्निपुराण (२२५।१६), मानसोल्लास (२१६) । कौटिल्य (१११५) ने स्पष्ट कहा है--"कोई बाहरी मनुष्य राजा की गुप्त नीति न जान सके । वे ही लोग, जिन्हें उसे कार्यान्वित करना है, केवल समय पर उसे जान सकते हैं।" इस विषय में और देखिए मनु (७।१०५ = शान्ति० १४०।२४)।५ मन्त्रिपरिषद् की बैठकों में राजा अध्यक्ष होता था, किन्तु उसकी अनुपस्थिति में प्रधान मन्त्री ऐसा करता था (मनु ७।१४१)। मालविकाग्निमिन (५) में आया है कि राजा का द्वैराज्य-सम्बन्धी निर्णय मन्त्रिपरिषद् को भेजा गया भौर तब अमात्य (यहाँ पर यह प्रधान मन्त्री या मन्त्रि-परिषद् के अध्यक्ष के रूप में है) ने राजा से कहा कि परिषद् ने आपकी बात मान ली और तब कहीं राजा ने मन्त्रि-परिषद को कहला भेजा कि वह सेनापति वीरसेन को प्रस्ताव कार्यान्वित कराने को भेजे। कौटिल्य (१।१५) यह भी कहते हैं कि सभी कार्य मन्त्रियों की उपस्थिति में होने चाहिए, यदि कोई अनुपस्थित रहे तो उसकी सम्मति पत्र लिखकर मंगा लेनी चाहिए । आकस्मिक घटना या किसी बड़े भय के समय राजा को अपनी छोटी मन्त्रिपरिषद् एवं बड़ी मन्त्रिपरिषद् के मन्त्रियों को बुला भेजना चाहिए और जो बहुमत से निर्णय हो उसे ही कार्यान्वित करना चाहिए । शुक्र ० (१।३६५) ने भी बहुमत की चर्चा की है। कामन्दक (४।४१-४६) का कहना है कि राजा को त्रु टिमय मार्ग से हटाना मन्त्रियों का कर्तव्य है, और मन्त्रियों की मन्त्रणा को सुनना राजा का कर्तव्य है। (अच्छे एवं कर्तव्यशील) मन्त्रि-गण न केवल मित्र हैं प्रत्युत राजा के गुरु हैं। शुक्र ० (२१८२-८३) का कथन है-- "जिनको रुष्ट करने से राजा डरता नहीं वैसे मन्त्रियों द्वारा राज्य समृद्धिशाली कैसे हो सकता है ? ऐसे लोग अलंकारभूषणों एवं वस्त्रों से सजायी जाने वाली स्त्रियों से कभी बढ़कर नहीं हैं। ऐसे मन्त्रियों से क्या लाभ, जिनकी सम्मति से राज्य की उन्नति नहीं होती,न जनता, सेना,कोश एवं अच्छे शासन की उन्ननि होती और न शत्रुओं का नाश होता है ?" सम्भवतः मन्त्रियों के लिए एक ओर राजा को प्रसन्न रखना तथा दूसरी ओर प्रजा को सान्त्वना देना बहत कष्टसाध्य कार्य था। एक पुरानी कहावत (सुभाषित) है कि जो राजा के कल्याण की चिन्ता करता है उससे प्रजा घृणा करती है और जो प्रजा की चिन्ता करता है वह राजा द्वारा त्याग दिया जाता है, अतः जहाँ यह बड़ी कठिनाई है, वहाँ दोनों को अर्थात राजा एवं प्रजा को प्रसन्न रखने वाला कठिनता से प्राप्त होता है । सारिकाभिर्मन्त्रो भिन्नः श्वभिरन्यैश्च तिर्यग्योनिभिः । अर्थशास्त्र १।१५; मिलाइए हर्षचरित (६) 'नागकुलजन्मनः सारिकाश्रावितमन्त्रस्यासीन्नाशो नागसेनस्य पद्यावत्याम् । शुकश्रुतरहस्यस्य च श्रीरशोर्यत श्रुतवर्मणः श्रावस्त्याम्।' ___५. नास्य छिद्र परः पश्येच्छिद्र षु परमन्वियात् । गहेत्कर्म इवाङ्गानि रक्षेद्विवरमात्मनः ॥ शान्ति० ८३।४६ एवं शान्ति० १४०।२४ । कौटिल्य ने यों लिखा है-'नास्य गुह्य परे विद्युश्छिद्र विद्यात्परस्य च । यत्स्याद्विवृत. मात्मनः । ६. सज्जमानमकार्येषु निरुन्ध्युमन्त्रिको नृपम् । गुरूणामिव चैतेषां शृणुयाद्वचनं नुपः ॥ नृपस्य ते हि सुहवस्त एवं गुरुवो मताः । य एनमुत्पथगतं वारयन्त्यनिवारिताः॥ सज्जमानमकार्येषु सुहृदो वारयन्ति ये । सत्यं ते नव सुहदो गुरवो गुरवो हि ते ॥ कामन्दक ३।३१, ४४-४५।। ७. नरपतिहितकर्ता द्वष्यतां याति लोके जनपदहितकर्ता त्यज्यते पार्थिवेन्द्र: । इति महति विरोधे वर्तमाने समाने नृपतिजनपदानां दुर्लभः कार्यकर्ता ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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