________________
मन्त्रियों के गुण एवं कर्तव्य
६२५
२५४), बुधभूषण (पृ. ३२१५७-५८) ने अमात्यों के गुणों की तालिका दी है। हम यहाँ केवल कौटिल्य की सूची प्रस्तुत करेंगे--मन्त्री देशवासी होना चाहिए, उच्च कुल का होना चाहिए, प्रभावशाली होना चाहिए और होना चाहिए कला-निपुण, दूरदर्शी, समझदार, अच्छी स्मृति वाला, सतत जागरूक, अच्छा वक्ता, निर्भीक, मेधावी, उत्साह एवं प्रताप से परिपूर्ण, धैर्यवान्, (मन-कर्म से) पवित्र, विनयशील, (राजा के प्रति) अटूट श्रद्धावान्, चरित्न, बल, स्वास्थ्य एवं तेजस्विता से परिपूर्ण, हठवादिता एव चाञ्चल्य से दुर, स्नेहवान्, ईर्ष्या से दूर। कौटिल्य के अनुसार अमात्य तीन प्रकार के होते हैं--उत्तम, मध्यम एवं निम्न श्रेणी वाले; जिनमें प्रथम उपर्युक्त सभी गुणों से सम्पन्न होते हैं और दूसरे तथा तीसरे प्रकार में क्रम से उपर्युक्त गुणों के चौथाई तथा आधे का अभाव पाया जाता है। शान्ति० (८३।३५-४०) में उन दुगुणों या दोषों का वर्णन है जिनके रहने से कोई मन्त्री का पद नहीं प्राप्त कर सकता, किन्तु ४१ से ४६ तक के श्लोकों में गुणों का वर्णन है जिनमें एक यह है कि उसे (मन्त्री को) पौरों एवं जानपदों का विश्वास प्राप्त होना चाहिए। बहुत-से प्रन्थों का कहना है कि मन्त्रियों को वंशपरम्परानुगत होना चाहिए, किन्तु यह बात तभी सम्भव है जब कि पुन योग्य हो (मनु ७।५४; याज्ञ० १।३१२; रामायण २।१००।२६ = सभापर्व १४३; अग्निपुराण २२०।१६-१७; शुक्र ० २।११४)। मत्स्यपुराण (२१५२८३-७४) एवं अग्निपुराण (२२०।१६-१७) का कहना है कि वंशपरम्परानुगत मन्द्रियों को अपने दायादों के मुकदमों को अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। यही बात विष्णुधर्मोत्तर (२।२४।५५-५६) में भी पायी जाती है। वंशपरम्परा से चले आये हए मन्त्रियों का उल्लेख अभिलेखों (उत्कीर्ण लेखों) में भी मिलता है। देखिए समुद्रगुप्त की प्रयाग-स्तम्भ-प्रशस्ति, जहाँ महादण्डनायक हरिषेण का पिता ध्रुवभूति भी महादण्डनायक था; उदयगिरि गुहा-अभिलेख, जहाँ चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में वीरसेन 'अन्वयप्राप्तसाचिव्य' (जिसने वंशपरम्परा से सचिवपद प्राप्त किया था) कहा गया है। राजनीतिप्रकाश (पृ० १७६) ने मत्स्यपुराण को उदधृत करते हुए लिखा है कि यदि भूतपूर्व मन्त्री का पुत्र या पौन अयोग्य हो तो वंशपरम्परा का सिद्धान्त वहाँ त्याज्य समझना चाहिए, अयोग्य पुत्रों एवं पौत्रों को उनकी बद्धि के अनुरूप अन्य राज्य-कार्य सौंपे जा सकते हैं। २ मध्यकालिक लेखकों में अधिकांश का कथन है कि मन्त्रियों को ब्राह्मणों,क्षत्रियों एवं वैश्यों में से चनना चाहिए, किन्तु शद्रको मन्त्री होने का अधिकार नहीं है, भले ही वह सर्वगुणसम्पन्न ही क्यों न हो (शुक्र ० २।४२६-४२७, नीतिवाक्यामृत, पृ० १०८)।३
मन्त्रि-परिषद् से एकान्त में परामर्श करना अच्छा समझा जाता था। कौटिल्य (१।१५) ने लिखा है-मन्त्रियों से मन्त्रणा करने के उपरान्त ही शासन-सम्बन्धी कार्य आरम्भ किये जाने चाहिए। मन्त्रणा ऐसे स्थान में की जानी चाहिए जो सर्वथा एकान्त में हो और जहाँ का स्वर बाहर न जा सके, और जिसे पक्षी भी न सुन सकें, क्योंकि ऐसा सुनने में आया है कि तोता, मैना, कत्ता एवं अन्य पशओं द्वारा भेद खोल दिया गया है। हर्षचरित (६) में आया है कि नाग वंश के
२. मत्स्यपुराणेपि । गुणहीनानपि तथा विज्ञाय नृपतिः स्वयम् । कर्मस्वेव नियुजीत यथायोग्येषु भागशः।। अत्रायं वाक्यार्थः । यदि मौलाः कुलीना अपि तथा पितृपैतामहपदयोग्यगुणहीनास्तांस्तथाविधगुणहीनानपि विज्ञाय यथायोग्येष्वेव कर्मसु स्वयं भागशः कर्मविभागेन नियुजीत न तु तत्तत्पितृपंतामहपदेषु तत्र तत्र तेषामयोग्यत्वात् । रानी० प्र०, पृ० १७६ ।
३. ब्राह्मणक्षत्रियविशामेकतमं स्वदेशजमाचाराभिजनविशुद्धमव्यसनिनमव्यभिचारिणमधीताखिलव्यबहारतन्त्रमस्त्रशमशेषोपाधिविशुद्धं च मन्त्रिणं कुर्वीत। समस्तपक्षपातेषु स्वदेशपक्षपातो महान् । नीतिवाक्यामृत, पृ० १०८।
४. मन्त्रपूर्वाः सर्वारम्भाः। तदुद्देशः संवृतः कथानामनिस्रावी पक्षिभिरनालोक्यः स्यात् । श्रूयते हि शुक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org