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धर्मशास्त्र का इतिहास
ने मन्त्रियों को अमात्यों की अपेक्षा अधिक उच्च पदाधिकारी माना है। राजनीतिप्रकाश (प० १७८) में अमात्यों को मन्त्री भी कहा गया है । कौटिल्य (१।१०) ने अमात्यों की नियुक्ति के लिए धर्म, अर्थ, काम एवं भय के अवसरों में प्रलोभन आदि से परीक्षा लेने की सम्मति दी है, किन्तु मन्त्रियों के लिए सत्यता (ईमानदारी) एवं विश्वासपात्रता की जाँच सभी प्रकार की परीक्षाओं के सम्मिलित रूप में आवश्यक मानी है। इस प्रकार की जाँच-प्रणाली को उपधा कहते हैं । नोतिवाक्यामृत (पृ० १११) ने उपधा की परिभाषा की है । कई प्रकार के उपायों से (गुप्तचरों द्वारा) धर्म, अर्थ, काम एवं भय के अवसरों में मनुष्य का परीक्षण ही उपधा है। कात्यायन (४-५) का कथन है कि राजाओं का मन अधिक शौर्य, ज्ञान, धन, अपरिमित शक्ति के कारण बहुत डांवाडोल हो जाता है, अत: ब्राह्मणों राजाओं को उनके कर्तव्यों की ओर सदा सचेत रखें।
मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों की संख्या के विषय में बहुत प्राचीन काल से ही मतभेद रहा है। कौटिल्य (१।१५) एवं कामन्दक (११।६७-६८) का कहना है कि मानव-सम्प्रदाय के अनुसार मन्त्रि-परिषद् में १२ अमात्य होते हैं, वाईस्पत्यों के अनुसार १३, औशनसों के अनसार २०। किन्तु कौटिल्य की सम्मति है कि संख्या का निर्धारण यथासामर्थ्य होना चाहिए, अर्थात जितनी शक्ति हो या जितने की आवश्यकता हो। रामायण (बालकाण्ड ७।२-३) में आया है कि दशरथ के कर्तव्यनिष्ठ एवं विश्वासी ८ मन्त्री थे। मन (७५५४) एवं मानसोल्लास (२।२।५७) का कहना है कि राजा को वंशपरम्परागत, शास्त्रों में प्रवीण, वीर, उच्च कुलोत्पन्न एवं भली भाँति परीक्षित ७ या ८ व्यक्तियों को चुन लेना चाहिए। शिवाजी मनु की इस सम्मति के अनुसार अपनी मन्त्रि-परिषद् में आठ प्रधान ( अष्टप्रधान) रखते थे। देखिए रानाडे कृत 'राइज आव दी मरहट्ठा पावर, पृ० १२५-१२६ । अष्टप्रधान ये थे --मुख्य प्रधान (प्रधान मन्त्री), पन्त अमात्य (वित्त-मन्त्री), पन्त सचिव (आय-व्यय-निरीक्षक एवं सबसे बड़ा अंकक), सेनापति, मन्त्री (राजा के व्यक्तिगत कार्यों का प्रभारी), सुमन्त (वैदेशिक नीति का मन्त्री), पण्डितराव (धार्मिक बातों का प्रभारी) एवं न्यायाधीश । सम्मवतः शिवाजी के समर्थकों ने यह सूची शक्रनीतिसार (२७१-७२) से ली थी। शान्ति. (८५७६) में आया है कि राजा के ३७ सचिव होने चाहिए, ४ विद्वान् एवं साहसी ब्राह्मण हों, ८ वीर क्षत्रिय हों, २१ धनी वैश्य हों, ६ शूद्र हों और एक पुराणों में पारंगत सूत हो। किन्तु ११वें श्लोक में आया है कि राजा को नीति-निर्धारण आठ मन्त्रियों के बीच करना चाहिए । शान्ति० (८३।४७) का कहना है कि मन्त्रियों की संख्या तीन से किसी प्रकार कम नहीं होनी चाहिए । रामायण (२।१००।७१) में आया है कि राम ने भरत से, जब वे वन में राम से मिलने आये थे, पूछा था कि वे ३ या ४ मन्त्रियों से परामर्श करते हैं कि नहीं। राम के पूछने का तात्पर्य यह था कि भरत को न तो केवल अपने से और न अधिक मन्त्रियों से परामर्श करना चाहिए। कौटिल्य (१।१५) ने भी कहा है कि राजा को ३ या ४ मन्त्रियों से सम्मति लेनी चाहिए। नीतिवाक्यामृत (मन्त्रिसमुद्देश, पृ १२७-२८) के अनुसार मन्त्रियों की संख्या ३, ५ या ७ होनी चाहिए, यदि अधिक लोग रहेंगे तो मतैक्य मिलना कठिन हो जायगा, अधिक मंत्रियों के विभिन्न चरित्रों एवं मतियों से पारस्परिक ईर्ष्या एवं कलह की आशंका है, क्योंकि सभी लोग अपने विचारों को प्रमखता देना चाहेंगे।
उपर्युक्त विवेचनों एवं उल्लेखों से स्पष्ट है कि प्रथमतः ३ या ४ मन्त्रियों की एक लघु परिषद् होती थी, उसके उपरान्त दूसरे ८ या उससे अधिक संख्या वाले मन्त्रियों की एक परिषद् और तीसरे, बहुत से अमात्य या सचिव (बहुतसे विभागों से सम्बन्धित उच्च पदाधिकारी-गण) होते थे। मन्त्रि-परिषद् की चर्चा अशोक ने भी की है ( 'परिसा गि युते आज्ञापयिसति', तीसरा एवं छठा शिला-अभिलेख) । कौटिल्य (१६), मनु (७।५४), याज्ञ ० (१।३१२), कामन्दक (४।२५-३०), शान्ति० (११८२-३, जहाँ मन्त्रियों के १४ गुणों का वर्णन है), शान्ति० (८०१२५-१८), बालकाण्ड (७७-१४), अयोध्याकाण्ड (१००।१५), मेधातिथि (मनु ७।५४), अग्निपुराण (२३६।११-१५ = कामन्दक ४।२५ एवं २८-३१), राजनीतिरत्नाकर (पृ० १३-१४), राजनीतिप्रकाश (पृ.१७४-१७८), राजधर्मकौस्तुभ (पृ० २५१
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