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राजा और शासन-विधान
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नियन्त्रण नहीं खड़ा करना चाहिए; बिना राजाज्ञा के जुआ,आसव-विक्रय, मृगया, अस्त्र-वहन, क्रय-विक्रय (हाथी, घोड़ा, भैंस, दास, अचल सम्पत्ति, सोना, चांदी, रत्न, आसव, विष, औषध), वैद्यक कार्य आदि-आदि न करने चाहिए।" मेधातिथि (मनु ८।३६६) का कहना है कि अकाल के समय राजा भोजन-सामग्री का निर्यात रोक सकता है। शुक्रनीतिसार में जो बातें पायी जाती हैं वे शताब्दियों पूर्व से ही लागू थीं। अशोक ने यह सब बहुत पहले ही अपने शासनों द्वारा, जो शिला-स्तम्भों पर लिखित पाये जाते हैं, व्यक्त कर दिया था। स्मतियों में आजकल की भाँति नियम निर्माण-विधि नहीं पायी जाती। गौतम (६।१६-२५) ने लिखा है कि राजा को निम्नलिखित ग्रन्थों के आधार पर नियम बनाने चाहिए। (१) वेद, धर्मशास्त्र , वेदांग (यथा व्याकरण, छन्द आदि), उपवेद, पुराण; (२) देश, जाति एवं कुलों की रीतियाँ; (३) कृषकों, व्यापारियों, महाजनों (ऋण देने वालों), शिल्पकारों आदि की रूढ़ियाँ ; (४) तर्क एवं (५) तीनों वेदों के पण्डित लोगों की सभा द्वारा निर्णीत सम्मतियाँ।२३रूढियों, परम्पराओं,रीतियों के प्रमाण के विषय में हम आगे पढ़ेंगे । कारणों के निर्णय में चार तत्त्वों पर विचार होता था; धर्म, व्यवहार, चरित एवं राजशासन, जिनके विषय में
आगे ही विवेचन उपस्थित करेंगे । स्पष्ट है कि सर्वप्रथम राजशासन या राजा के आदेश ही न्याय-कार्य में लाग होते थे, जो कालान्तर में नियमों के रूप में बँध गये । देखिए इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय २८, जहाँ धार्मिक बातों में परिषद की सहायता की चर्चा है। याज्ञ० (१६) एवं शंख ने भी परिषद (विद्वानों की सभा)को धर्म की बातों में प्रमाण माना है।
राज-नियम-प्रबन्ध-सम्बन्धी बातों के बारे में हम आग के अध्याय में सविस्तर पढेंगे ।
राजा के कार्यों को हम धार्मिक एवं लौकिक (धर्म-निरपेक्ष) दोनों रूपों में देख सकते हैं। प्रथम रूप में राजा देवताओं एवं अदृश्य शक्तियों को प्रसन्न रखने एवं भयों से दूर रहने के लिए पुरोहित एवं यज्ञिय पुरोहितों(गौतम ११।१५१७, याज्ञ. ११३०८) की सहायता से कार्यशील होता था और उसे धर्म की रक्षा करनी पड़ती थी। उसके धर्म-निरपेक्ष या लौकिक या व्यावहारिक कार्य थे सम्पत्ति बढ़ाना, अकाल एवं अन्य प्रकार की विपत्तियों के समय में प्रजा की रक्षा करना, न्याय की दृष्टि में सबको समान जानना, चोरों, आक्रामकों आदि से जन एवं धन की रक्षा करना।
महाभारत में ऐसे उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि बहुत-से राजाओं ने अपने पुत्रों को उत्तराधिकार सौंप कर मुनि के समान वन का मार्ग अपनाया था। वनपर्व (२०२।८) में आया है कि बृहदश्व ने अपने पुत्र कुवलयाश्व को राजा बनाया । और देखिए वायु० (८८।३२) । धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर से कहा है कि उनके कुल में वृद्धावस्था में पुत्रों को शासन सौंपकर वन में चले जाने की परम्परा-सी रही है (आश्रमवासिक पर्व २।३८) । व्यास ने कहा है कि सभी राजर्षियों ने ऐसा किया है (आश्रमवासिक ४।५) । आश्रमवासिक पर्व (२०) में बहुत-से ऐसे राजाओं के नाम आये हैं। और देखिए शान्तिपर्व (२१।२५) । अयोध्याकाण्ड (२३।२६, ६४।१६) में भी इस परम्परा का संकेत मिलता है। और देखिए कालिदास की उक्तियाँ (रघुवंश १।८, १८; ७, ६,२६; ८।११, २३)। जैन परम्पराओं से पता चलता है कि अन्तिम श्रुतकेवली जैन साधु (मुनि) भद्रबाहु ने, जिसे चन्द्रगुप्त मौर्य भी कहा जाता है, अपने पुत्र को राज्य सौंपकर श्रवण बेलगोड़ा का मार्ग पकड़ा था (इंण्डियन एण्टिक्वेरी, जिल्द २१, पृ० १५६)। दिव्यावदान (२६, पृ० ४३१) में आया है कि अशोक महान् अन्तिम अवस्था में शक्ति एवं समृद्धि से रहित हो गया था। डा० फ्लीट का अनुमान है
२३. तस्य च व्यवहारो वेदो धर्म शास्त्राण्यङ्गान्युपवेदाः पुराणम् । देशजातिकुलधर्माश्चाम्नायरविरुद्धाः प्रमाणम् । कर्षकवणिक्पशुपालकुसोदिकारवः स्वे स्वे वर्गे। . . . न्यायाधिगमे तर्कोभ्युपायः ।...विप्रतिपत्तौ विद्यवृद्ध भ्यः प्रत्यवहत्य निष्ठां गमयेत् तथा ह्यस्य निःश्रेयसं भवति । गौ० ६।१६-२५ ।
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