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धर्मशास्त्र का इतिहास
( या मन्त्रियों) द्वारा मार डाले गये हैं । " २१ हम कह सकते हैं कि जहाँ तक सिद्धान्त एवं सामान्य जनता का प्रश्न है, राजा की शक्ति अपरिमित थी और वह सर्वेसर्वा था, जैसा कि मनु (६६-१२) एवं पराशर ने स्पष्ट कहा है--राजा ब्रह्मा है, शिव है और विष्णु एवं इन्द्र है, क्योंकि वह प्रजा के कर्मों के अनुसार दाता, नाशक एवं नियामक है । किन्तु जैसा कि हम अभी देख चुके हैं, राजा पर कुछ ऐसे नियंत्रण थे जिनके फलस्वरूप वह मनमानी नहीं कर सकता था । किन्तु इन नियंत्रणों को हम आधुनिक भाषा में वैधानिक नियंत्रण नहीं कह सकते । नारद का कहना है कि प्रजा आश्रित है, राजा अनियन्त्रित है, किन्तु वह शास्त्रों के विरोध में नहीं जा सकता ( देखिए गौतम ६ । २ की टीका में हरदत्त ) । आधुनिक काल में राजा के तीन प्रधान कार्य हैं; राजनियम- प्रबन्ध अथवा कार्यकारिणी - सम्बन्धी, न्याय सम्बन्धी एवं विधान निर्माण संबन्धी । प्राचीन भारतीय राजा के न्याय सम्बन्धी कार्यों का विवेचन हम एक अन्य अध्याय में करेंगे। प्राचीन काल में राजा का विधान सम्बन्धी कार्य बहुत सीमित था, क्योंकि उन दिनों हमारा समाज ही ऐसा था । आधुनिक काल में हम सभी वस्तुओं के पीछे कानून की मुहर लगा देना चाहते हैं । प्राचीन काल में ऐसी बात नहीं थी ।
(७।१३) का कहना है कि राजा में सभी देवताओं की दीप्ति विद्यमान रहती है, अतः सम्यक् आचरणों एवं अनुचित आचरणों के विषय में वह जो कुछ नियम बनाता है उसका उल्लंघन नहीं करना चाहिए। मनु के इस कथन की टीका में मेधातिथि ने कुछ राजनियमों के ऐसे उदाहरण दिये हैं, यथा--" आज राजधानी में सभी को उत्सव मनाना चाहिए; मंत्री के घर के वैवाहिक कार्य में आज सभी को जाना चाहिए; कसाइयों द्वारा आज के दिन पशु हनन नहीं होना चाहिए; आज पक्षियों को नहीं पकड़ना चाहिए; इन दिनों महाजनों को चाहिए कि वे कर्जदारों को न सतायें; बुरे आचरण वाले मनुष्यों का साथ नहीं करना चाहिए, ऐसे लोगों को घर में नहीं आने देना चाहिए।"मेधातिथिका कहना है कि राजा को शास्त्रीय नियमों का विरोध नहीं करना चाहिए, अर्थात् उसे वर्णाश्रम धर्म के विरोध में नहीं जाना चाहिए, यथा--- अग्निहोत्र आदि का विरोध नहीं करना चाहिए । २२ मेधातिथि की यह टीका राजनीतिप्रकाश ( पृ० २३-२४) में ज्यों-की-त्यों पायी जाती है। कौटिल्य (२1१०) ने शासनों के प्रणयन के विषय में एक प्रकरण ही लिख डाला है । शुक्रनीतिसार (१३१२-३१३) ने लिखा है कि राजा के शासन ( फरमान या घोषणाएँ) डुग्गी पिटजाकर घोषित कर देने चाहिए, उन्हें चौराहे पर लिखकर रख देना चाहिए । राजा को घोषित कर देना चाहिए कि उसकी आज्ञा के उल्लंघन पर कड़ा दण्ड मिलेगा । शुक्र ० (१।२६२ - ३११) ने इस विषय में निम्न उदाहरण प्रस्तुत किये हैं-- "चौकीदारों को चाहिए कि वे प्रति डेढ़ घंटे पर सड़कों पर घूम-घूमकर चोरों एवं लंपटों को रोकें; लोगों को चाहिए कि वे दासों, नौकरों, पत्नी, पुत्र या शिष्य को न तो गाली दें और न पीटें ; नाप-तौल के बटखरों, सिक्कों, धातुओं, घृत, मधु, दूध, मांस, आटा आदि के विषय में कपटाचरण नहीं होना चाहिए; राज-कर्मचारियों द्वारा घूस नहीं ली जानी चाहिए और न उन्हें घूम देनी चाहिए; बलपूर्वक कोई लेख- प्रमाण नहीं लेना चाहिए; दुष्ट चरित्रों, चोरों, छिछोरों, राजद्रोहियों एवं शत्रुओं को शरण नहीं देनी चाहिए; माता-पिता, सम्मानार्ह लोगों, विद्वानों, अच्छे चरित्र वालों का असम्मान नहीं होना चाहिए और न उनकी खिल्ली उड़ायी जानी चाहिए; पति-पत्नी, स्वामी भृत्य, भाई-भाई, गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र में कलह के बीज नहीं बोने चाहिए; कूपों, उपवनों, चहारदीवारियों, धर्मशालाओं, मन्दिरों, सड़कों तथा लूले लंगड़ों के मार्ग में बाधा या
२१. अविनीतो हि व्यसनदोषान् न पश्यति । तानुपदेक्ष्यामः । कोपजस्त्रिवर्गः कामजश्चतुर्वर्गः । तयोः कोपो गरीयान् सर्वत्र हि कोपश्चरति । प्रायशश्व कोपवशा राजानः प्रकृतिको वैर्हताः श्रूयन्ते । अर्थशास्त्र ८।३।
२२. न त्वग्निहोत्र व्यवस्थायं वर्णाश्रमिणां राजा प्रभवति स्मृत्यन्तरविरोधप्रसङ्गात्, अविरोधे चास्मिन् विषये वचनस्यार्थवत्त्वात । मेधातिथि (मनु ७/१३ ) |
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