SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजा पर धर्म का नियन्त्रण ६१६ नहीं कर सकता था । उत्तर यह है कि राजा पर नियन्त्रण था और राजा की सीमाएँ भी थीं। यह नियन्त्रण तथा सीमाएं कई प्रकार की थीं। कात्यायन (१०) का कहना है कि जो राजा बिना सोचे-समझे क्रोध करता है वह आधे कल्प तक रौरव नरक भोगता है । हमारे लेखकों ने राजा पर धर्म का इतना दबाव रख छोड़ा है कि उसका राजा पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव हठा पड़ता ही था । दण्ड को दैवी शक्ति प्राप्त थी, अतः वह बुरे राजाओं पर स्वयं घहरा सकता था, इसी अवस्थित राजा अपने को बन्धनों के बीच ही रखते थे ( मनु ७१६, २७, २८, ३०; याज्ञ ० १।३५४-३५६)। लेखकों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि राजा मनमानी नहीं कर सकता, उसे शास्त्रानुकूल कार्य करके अपने पद की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि राज्य एक पवित्र धरोहर है। इन विचारों ने एक जनमत प्रस्तुत कर रखा था और राजा उससे विमुख नहीं रह सकता था, अर्थात् राजा वास्तविकता की पहचान रखता था । मर्यादा पुरुषोत्तम राम यह जानते थे कि सीता पवित्र है, किन्तु उन्होंने लोकापवाद की रक्षा कर सीता को निर्वासित कर दिया, क्योंकि साधारण जनता यह समझती थी कि सीता रावण के बंदीगृह में रह चुकी है ( देखिए रामायण, ७१४५ ) । राजा को मन्त्रियों की सम्मति लेनी पड़ती थी । इन सब बातों के अतिरिक्त पुरोहित तथा अन्य विद्वान् ब्राह्मण थे जो सदा धर्म की बातें समझाने रहते थे, जिनकी बातों का मानना राजा के लिए परमावश्यक था, अन्यथा वे उसका नाश कर सकते थे, क्योंकि धर्म एवं जाति के अनुसार वे राजा की अपेक्षा अधिक पूत एवं उच्च माने जाते थे ( वसिष्ठ १३६-४१, गौतम ११।१२-१४, मनु ६ । ३२० ) । और देखिए इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय ३ । यह एक गहरा विश्वास था कि शास्त्रों (श्रौत एवं स्मार्त धर्म ) के नियम दैवी हैं और राजा से बहुत ऊपर हैं । धर्म-पालन सभी के लिए सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व रखता था और राजा इससे अपने को बरी नहीं कर सकता था। धर्म से बढ़कर कुछ नहीं है (बृहदारण्यकोपनिषद् १।४।११-१४ ) | धर्म के बल पर एक निर्बल व्यक्ति भी सबल पर अधिकार कर सकता है। जो धर्म है वही सत्य है। धर्म एवं सत्य एक ही हैं ।१६ कामन्दक (१११४ ) ने कहा है कि यवन राजा ने भूतल पर बहुत दिनों तक शासन किया, क्योंकि उसने धर्म की आज्ञाओं के अनुसार राज्य चलाया । न्यायशासन में राजा को निर्भीक न्यायाधीश एवं सभ्यों के नियन्त्रण के अनुसार चलना पड़ता था ( इस पर हम व्यवहार के अध्याय में पुनः विचार करेंगे ) । न्यायाधीश एवं सभ्य लोग निर्भीक होकर राजा की त्रुटियां बताते थे । इन सब बातों के अतिरिक्त श्रेणियाँ, निगम आदि शक्तिशाली समुदाय थे जो एक प्रकार से स्व-शासन रखते थे । मनु ( ८।३३६ एवं याज्ञ० २।३०७) ने तो यहाँ तक व्यवस्था दी है कि जब राजा अवैधानिक रूप से कुछ बलपूर्वक ग्रहण कर लेता है या दण्ड देता है; तो उसे भी दण्ड मिलना चाहिए और उसे पापियों से प्राप्त दण्ड-स्वरूप धन को ब्राह्मणों में बाँट देना चाहिए ( मनु ६ । २४३ - २४४) । अन्त में हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जनता या प्रजा बुरे या अयोग्य राजा को त्याग सकती थी, या उसे मार डाल सकती थी ( मनु ७ २७ २८, अर्थशास्त्र १।४ ) । २० कौटिल्य ( ८1३) ने लिखा है कि अनुशासनाभाव या अविनीतता के कारण राजा पर विपत्तियाँ घहरा सकती हैं; "क्रोध के वश में रहने वाले राजा प्रजा १६. स नैव व्यभवत्तच्छे यो रूपमत्यसृजत धर्मं तदेतत्क्षत्रस्य क्षत्रं यद्धर्मस्तस्माद्धर्मात्परं नास्ति । अथो अवलीयान्बलीयांसमाशंसते धर्मेण यथा राज्ञा । एवं यो वं स धर्मः सत्यं वं तत् तस्मात्सत्य वदन्तमाहूर्धमं वदतीति धर्म या ववन्तं सत्यं वदतीत्येतद् ष्येवैतदुभयं भवति । बृहदारण्यकोपनिषद् १|४|१४| २०. दुष्प्रणीतः ( दण्डः) कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वानप्रस्थं परिव्राजकानपि कोपयति किमङ्ग पुनर्गृहस्थान् । अर्थशास्त्र १४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy