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धर्मशास्त्र का इतिहास
सिद्धान्त की कटु आलोचना की है। हम यहाँ विस्तार के साथ डा० जायसवाल के सिद्धान्त की जाँच नहीं कर सकते । बहुत थोड़े में कुछ मुख्य बातें दी जा रही हैं।
डा० जायसवाल के सिद्धान्त का स्रोत हाथीगम्फा का अभिलेख है, जिसका यह अंश विचारणीय है-"राजसूयं संदसयंतो सव-कर-वणं अनुग्रह-अनेकानि सतसहसानि विसजति पोरं जानपदम्।" इसका अर्थ स्वयं डा० जायसवाल ने यों किया है--"सभी दशमांश एवं कर छोड़ता है, पौर एवं जानपद पर सैकड़ों-हजारों अधिकार सौंपता है।" डा० जायसवाल ने इस शब्द का अर्थ कई बार कई ढंग से किया है। डा० बरुआ पोर जानपदं को एक पद के रूप में लेते हैं। यदि यह एक पद है तो समाहार-द्वन्द्व समास होने के कारण इसका तात्पर्य हुआ "राजधानी के सभी निवासी तथा ग्राम के निवासी।" यदि मान लिया जाय कि यह शब्द वास्तव में 'पोरं जानपदं' है, तो भी प्रश्न जहाँ-का-तहाँ रह जाता है। यदि डा० जायसवाल यह कहते है कि पौर-जानपद राजा को पदच्युत कर सकता है, तो यह कहना कि राजा "सभी दशमांश एव कर छोड़ता है और पौर एवं जानपद पर सैकड़ों-हजारों अधिकार सौंपता है" कैसे युक्तिसंगत माना जायगा ? क्या यह विरोधाभास नहीं है? एक ओर पौर-जानपद इतने शक्तिशाली हैं और दूसरी ओर वे ही राजा की कृपा के भिखारी हैं। यह कैसे सम्भव है ? डा० जायसवाल ने रामायण तथा अन्य संस्कृत ग्रंथों से जो कुछ उद्धत किया है उससे यह नहीं सिद्ध किया जा सकता कि ये दोनों निर्वाचित संस्थाएँ थीं। वास्तव में पौर (राजधानी के निवासी-गण) एवं जानपद (राजधानी के अतिरिक्त अन्य ग्रामों के निवासी-गण) के साधारण अर्थ ही पर्याप्त हैं। कोटिल्य (१। १६) ने लिखा है कि राजा दिन के दूसरे भाग में (दिन ८ भागों में विभाजित था) पौर-जानपद के प्रयोजनों पर विचार करते थे । डा० जायसवाल ने यहाँ यह भ्रामक अर्थ लगाया है कि राजा अपने दिन का एक अंश निर्वाचित पौर-जानपद सभा को दिया करते थे। कौटिल्य एवं याज्ञ० (१।३२७) केवल इतना ही कहते हैं कि राजा जनता के व्यवहारों (मुकदमों) को देखते थे। मनु (८।४३), नारद तथा अन्य लेखकों ने व्यवहार के क्षेत्र में 'कार्य' शब्द 'मुकदमा' के अर्थ में प्रयुक्त किया है। याज्ञ० (२।३६) ने लिखा है कि राजा को चाहिए कि वह चोरी किया हुआ धन जानपद को लौटा दे। डा० जायसवाल ने इसको इस अर्थ में लिया है कि वह चोरी किया हुआ धन साधारण सभा को मिल जाना चाहिए। यहाँ पर याज्ञवल्क्य के सरल शब्दों को जायसवाल महोदय ने तोड़-मोड़कर अपने अर्थ में ले लिया है। यही साधारण बात मनु (८।४०) ने यों कही है--"दातव्यं सर्व-वर्णेभ्यो राज्ञा चौरहतं धनम् ।" सौभाग्य से मन ने 'जानपद' शब्द का प्रयोग नहीं किया। मेधातिथि ने सीधा अर्थ लगाया है-"यह उसे दे देना चाहिए जिससे यह चराया गया था।" डा० जायसवाल (हिन्दू पॉलिटी, भाग २, पृ०७६) अर्थशास्त्र (२-१४) लगाते हैं कि पौर-जानपद ने सिक्के ढालने वाले अधिकारी द्वारा सोने के सिक्के ढलवाये। किन्तु सीधा अर्थ यह है कि सिक्का बनाने वाला सभी लोगों के लिए, जब कि वे उसके पास सोना-चाँदी लेकर आते थे, उचित (निर्धारित) माप के सोने एवं चाँदी के सिक्के बना देता था। राजनीति के सभी ग्रंथों में राज्य के सात अंग कहे गये हैं, किन्तु कहीं भी पौर-जानपद को राज्य के तत्त्वों में सम्मिलित नहीं किया गया है। यदि ऐसा हआ होता तो जायसवाल महोदय को अपने सिद्धान्त की पुष्टि के लिए अखिल भारतीय वाङमय की छानबीन न करनी पड़ती। इतना ही नहीं, धर्मशास्त्रीय एवं अर्थशास्त्रीय ग्रंथों में कहीं भी निर्वाचन, निर्वाचन-विधि, सदस्यता की शर्त, सदस्यता अवधि आदि पर विचार नहीं किया गया है और न कहीं संकेत ही मिलता है। जब अपरार्क (याज्ञ. ११, पृ०६००) जैसे मध्यकाल के लेखक बहस्पति को उद्धत कर चार प्रकार की सभाओं का उल्लेख करते हैं. तो वे केवल न्याय-सभा-सम्बन्धी बह प्रकार की सभाओं की ही चर्चा करके रह जाते हैं।
यदि जन-साधारण द्वारा निर्वाचित सभाएँ नहीं थीं तो यह पूछा जा सकता है कि क्या राजा की शक्ति अपरिमित थी? क्या राजा निरंकुश था या राजा पर किसी प्रकार का नियन्त्रण था? जिसके फलस्वरूप वह सब कुछ या मनमानी
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