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________________ राज-सभा एवं पौर-जानपद ६१७ नहीं प्रतीत होता । अथर्ववेद में एक स्थल (१।१६।१५)पर ऐसा आया है--"जो ब्राह्मण को तग करता है उसे समिति नहीं भातो." अर्थात वह समिति पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता। छान्दोग्योपनिषद् में उल्लेख है कि श्वेतकेतु पञ्चाल देश की समिति में गया, जहाँ राजा प्रवाहण जैवलि ने उससे पाँच प्रश्न पूछे जिनका उत्तर वह न दे सका, इसके उपरान्त वह दूसरे दिन प्रातःकाल सभा में बैठे हुए राजा से मिला । यहाँ पर दो बार प्रयुक्त 'सभा' शब्द एक ही सभा के लिए है। वैदिक काल में सभा या समिति का निर्माण कैसे होता था, यह कहना असम्भव है। हम इतना ही कह सकते हैं कि यह एक ऐसी जन-सभा थी जहाँ राजा, विद्वान् लोग तथा अन्य लोग जाते थे। यह निर्वाचित संस्था थी, ऐसा कहना अत्यन्त सन्देहात्मक है । सम्भवतः यह ऐसे लोगों की अस्थायी सभा थी जो उसमें जाना या उपस्थित रहना पसन्द करते थे। डा० का० प्र० जायसवाल (हिन्दू पॉलिटी, भाग १, पृ० ११) का कहना है कि 'समिति' वैदिक काल में (सभी लोगों की) एक राष्ट्रीय सभा थी और उसमें उपस्थित रहना राजा का कर्तव्य था; उसी प्रकार 'सभा' थोड़ेसे चुने हुए लोगों की स्थायी संस्था थी जो समिति के अधिकारों के भीतर ही कार्य करती थी (पृ० १२)। किन्तु ये सब कल्पनात्मक विचार हैं। स्वयं डा० जायसवाल ने माना है कि सभा, वास्तव में समिति से सम्बन्धित थी, किन्तु इसका वास्तविक सम्बन्ध प्राप्त साधनों के आधार पर नहीं बताया जा सकता। पौर एवं जानपद अब हम 'पौर' एवं 'जानपद' शब्दों की व्याख्या उपस्थित करेंगे । 'पौर' शब्द ऋग्वेद में एक स्थल (५।७४।४) पर तीन प्रकार से प्रयुक्त हुआ है--(१) अश्विनौ के साथ, (२) मुनि पौर (जो आत्रेय थे) के साथ, तथा बादल के साथ (सायण के अनुसार)। डा० काशीप्रसाद जायसवास ने 'हिन्दू पॉलिटी' (भाग २, पृ० ६०-१०८) में इन दोनों शब्दों को लेकर जो लम्बा आख्यान बना डाला है, वह उनकी विद्वत्ता, परिश्रम एवं युक्तिमत्ता का परिचायक है। उन्होंने 'पौर' एवं 'जानपद' को निर्वाचित संस्थाएँ माना है। हम उनके निष्कर्ष को यों रखते हैं (पृ० १०८)--"यह दो प्रकार या दोनों मिलकर एक प्रकार की पौर-जानपद सस्था राजा को पदच्युत कर सकती थी, उत्तराधिकारी घोषित कर सकती थी..... जिसके अध्यक्ष को मन्त्रि-परिपद द्वारा निर्णीत नीति बता दी जाती थी। राजा नये कर के लिए मन्त्रि-परिषद से विनम्र प्रार्थना करता था..."पौर-जानपद का अध्यक्ष राजा के विरोध में भी नियम बना सकता था..."। अध्यक्ष राजा के शासन को सम्भव या असम्भव बना सकता था।" डा० जायसवाल कार से बहुत दूर है। बहुत-से लेखकों ने, यथा---डा० बी० के० सरकार (पोलिटिकल इंस्टिच्यूशंस एण्ड थ्योरीज ऑव दी हिन्दूज, पृ०७१) तथा डा० बेनीप्रसाद (दी स्टेट इन एश्येण्ट इण्डिया, पृ० ४६८-५००), ने डा० जायसवाल के १८. डा० जायसवाल जैसे लोगों ने निर्वाचित सभाओं की उपस्थिति को सिद्ध करने का जो प्रयत्न किया है वह इसीलिए कि बहुत काल से बहुत-से विदेशी लेखकों ने यह विचार प्रकट कर रखा था और प्रचारित कर रखा था कि भारत में लोकनीतिक या जनतन्त्रात्मक संस्थाएँ स्थापित नहीं की जा सकतीं। वास्तव में यूरोपीय लेखकों को यह ज्ञात होना चाहिए कि उनके यहाँ भी निर्वाचन आदि की प्रथा अभी कल की है, अर्थात् ७-८ शताब्दी प्राचीन । भारत में वर्तमान स्वतन्त्रता के पूर्व एवं उपरान्त निर्वाचन के उदाहरण जैसे सफल रहे हैं और यहाँ सन् १६४७ से जिस प्रकार जनतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली चल रही है, वह विश्व को चकित करने वाली है। काश, वे लेखक यह देखने को जीवित बचे होते, जिन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि भारतवर्ष में निर्वाचन तथा लोकतन्त्रात्मक संस्थाएं नहीं चल सकती। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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