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धर्मशास्त्र का इतिहास बैठकें बुलाना एवं करना, (२) चित्तक्य के साथ मिलना एवं चित्तैक्य के साथ जो निर्णय हो उसे कार्यान्वित करना, (३) जो पूर्व प्रतिष्ठापित न हो उस पर नियम न बनाना, तथा जो नियम बन चुका हो, उसे समाप्त न करना तथा पूर्व काल से प्रतिष्ठापित प्राचीन नियमों के अनुसार कार्यशील होना, (४) गुरुजनों का सम्मान एवं श्रद्धा करना तथा उनकी बातें मानना, (५) बलपूर्वक अपनी जाति की स्त्रियों या लड़कियों को न रोकना या बलात्कार न करना या उन्हें न भगा ले जाना, (६) वज्जि लोगों के तीर्थ-स्थानों का सम्मान करना, उनकी रक्षा करना तथा उनकी पूजा-अर्चनासम्बन्धी क्रियाओं को समाप्त न होने देना तथा (७) उनमें पाये जाने वाले अर्हतों की रक्षा-सुरक्षा की चिन्ता करना।
किन्तु गणराज्य-सम्बन्धी कुछ अति आवश्यक बातों पर हमें कोई प्रकाश नहीं मिलता, यथा--कौन अभिमत (वोट) देने का अधिकारी था? राज्य-सभा की सदस्यता के लिए कौन-कौन सी अनिवार्य शतें थीं? वोट कैसे पड़ता था? सदस्यता की अवधि क्या थी? क्या अध्यक्ष जीवन भर के लिए या कुछ अवधि के लिए चना जाता था या उसका चुनाव होता ही नहीं था? सभा की शक्तियाँ एवं विधियाँ क्या थी ? (देखिए डा० बेनीप्रसाद कृत 'हिन्दू पोलिटिकल प्योरीज़' पृ० १५८) । राइस डेविड्स (बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ० ४१) ने लिखा है कि जातकों के आधार पर वैसालो में ७७०७ राजा थे। भद्दसाल-जातक (फॉस्बॉल, जिल्द ४, पृ० १४८) में आया है कि वैसाली में गण के राजाओं (प्रमुखों) के कुलों के स्नान के लिए एक तालाब था। महावस्तु में आया है कि लिच्छिवियों में ८४ सहस्र के दुगुने राजा लोग थे। इससे स्पष्ट होता है कि कौटिल्य ने जो "राजशब्दोपजीविनः" लिखा है, वह ठीक ही है । ये राजा शारीरिक कार्य, यथा कृषि, व्यापार आदि नहीं करते थे। धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र की पुस्तकों में सभा के सदस्यों के चुनाव के नियमों के विषय में कोई प्रकाश नहीं मिलता (देखिए डा० डी० आर० भण्डारकर कृत पुस्तक 'सम आस्पेक्टस आव ऐंश्येंट हिन्द्र पॉलिटी' १६२६, प० १०१-१२१, जहाँ गणराज्यों का संक्षिप्त विवेचन किया गया है)। दक्षिण भारत के उत्तरमल्लर नामक अभिलेख से पता चलता है कि गणों की सदस्यता के लिए कह वैदिक अध्ययन की शर्त थी और टिकट पर आवेदकों के नाम लिखे रहते थे। किन्तु ऐसी बातें बहत कम थीं और थीं भी तो ग्राम-सभाओं के लिए । वास्तव में गणों की चुनाव-व्यवस्था के वियय में हमें अभी कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलते।
क्या किसी राजतन्त्र के अन्तर्गत निर्वाचित प्रतिनिधियों की सभाएं थीं? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । इस विषय में 'सभा' एवं 'समिति' शब्दों पर विचार करना आवश्यक है। ऋग्वेद (१।१४२०) में आया है कि सोम ने एक ऐसा पुत्र प्रदान किया जो सादन्य, विदथ्य एवं सभेय है, जिससे प्रकट होता है कि 'सभा' शब्द 'विदथ' शब्द से भिन्न अर्थ रखता है । ऋग्वेद (२।२४।१३) में एक विप्र (पुरोहित या मन्त्र-प्रणेता) को सभेय (सभा में चतुर या प्रसिद्ध) कहा गया है । ऋग्वेद (१०।३४१६) में एक स्थल पर सभा का अर्थ "जुआ का घर" है । वाजसनेयी संहिता (३०१६) में लगता है, सभाचर का अर्थ सभासद है अर्थात् न्याय-सम्बन्धी सभा का सदस्य । दूसरे स्थल (३०।१८) पर प्रतीकात्मक पुरुषमेध में समास्थाण आस्कन्द को देने का वर्णन आया है। वाज० (१६।२४) में सभाओं एवं सभापतियों (सभाओं के अध्यक्ष) को प्रणाम किया गया है। अथर्ववेद (७।१२।१) में 'सभा' और 'समिति' प्रजापति की दो पुत्रियां कही गयी हैं, जिससे यह तर्क उपस्थित किया जा सकता है कि ये दोनों समान होती हुई भी एक-दूसरी से कुछ भिन्न हैं। अथर्व बेद में दूसरे स्थल (१५६२) पर 'सभा' एव 'समिति' का उल्लेख पृथकपृथक् हुआ है । तैत्तिरीय ब्राह्मण (३।७।४) में 'सभापाल' शब्द प्रयुक्त हुआ है और सायण ने 'सभा' का अर्थ "द्यूत-भवन" लगाया है। ऋग्वेद (१०६३।६) एवं वाज० सं० (१२।८०) में ऐसा आया है कि 'विप्र' एक वैद्य (भिषक्) है, जिसमें ओषधियां उसी प्रकार एक-साय आती हैं, जिस प्रकार राजा लोग समिति (बैठक या युद्ध) में जाते हैं। ऋग्वेद में एक स्थल (१०१११३) पर 'समिति' का अर्थ सभा या सभा-स्थल के अतिरिक्त और कछ
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