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________________ ६१४ धर्मशास्त्र का इतिहास (६) में आया है कि हस्तिसेना के सेनापति स्कन्दगुप्त ने सम्राट हर्ष को सब पर विश्वास करने से मना किया है और १६ ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि असावधानी के कारण तथा दुरभिसन्धियों के फलस्वरूप वे राजा विपत्तियों में फँसे । कुछ नाम ये हैं-वत्सराज उदयन मौर्यराज बृहद्रथ, काकवर्ण शैशुनारि ( शैशुनागि 2 ), अग्निमित्र का पुत्र सुमित्र शुंग देवभूति, मौखरि राजा क्षत्रवर्मा। और देखिए कामसूत्र ( ५/५/३०), नीतिवाक्यामृत ( दूतसमुद्देश, पृ० १७१), यशस्तिलकचम्पू ( ३, पृ० ४३१-४३२) । उपर्युक्त उदाहरणों से यह नहीं समझना चाहिए कि प्राचीन काल में भारतीय राजा असुरक्षित रहा करते थे और उनके प्राणों पर बहुधा आक्रमण हुआ करते थे । भारतवर्ष में एक 'समय बहुत से राजा राज्य करते थे । यदि सहस्रों वर्षों के दौरान कुछ ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । अन्य देशों के इतिहास के पन उलटे जायें तो कुछ ही शताब्दियों में सैकड़ों ऐसे चित्र उपस्थित होंगे जहाँ कपटाचरण एवं दुरभिसंधियों के कारण कतिपय शासक मार डाले गये । वास्तव में राजसत्तात्मक प्रणाली में राजा सारे राज्यचक्र की विवर्तन - कील ( धुरी ) था । मत्स्यपुराण (२१६ । १४ ) में आया है कि राजा जड़ है और प्रजा वृक्ष; भय से राजा को बचाने में सम्पूर्ण राज्य की समृद्धि बनी रहती है, अतः सबको मिलकर राजा की रक्षा का प्रयत्न करना चाहिए । प्राचीन एवं मध्य काल में शासन व्यवस्था वंशपरम्परागत एकराजात्मक थी । कौटिल्य ( १1१७ ) ने स्पष्ट लिखा है कि विपत्तिकाल को छोड़कर सदैव ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकार मिलता रहा है और यह प्रणाली सदैव मान्य रही है । बुद्ध के समय के आस-पास तथा उनसे कुछ शताब्दियों उपरान्त भी भारत में कुछ अल्पजनाधिपत्य-शासन या गणतन्त्र संस्थापित थे । किन्तु हमारे धर्मशास्त्र विषयक ग्रन्थों या राजनीतिशास्त्र विषयक-ग्रन्थों में उनके विषय में बहुत कम संकेत प्राप्त होते हैं । शान्तिपर्व ( १०७ ) में गणराज्यों के विषय में ऐसा लिखा है--" गणों के नाश का कारण है आन्तरिक कलह; जहाँ बहुत से शासक हों, वहाँ नीति का रहस्य छिपा नहीं रह सकता, सभी सदस्य निर्धारित नीति को जानने के अधिकारी नहीं हो सकते, अतः गण के रक्षार्थ प्रमुख व्यक्तियों को आपस में विचार-विमर्श करना चाहिए; यदि गण के विभिन्न कुलों में कलह उत्पन्न हो जाय और कुलों के मुख्य लोग उसे संभाल न सकें तो गण में गड़बड़ियाँ अवश्य उत्पन्न हो जायेंगी। गणराज्यों के विषय में आन्तरिक कलहों का मिट जाना परमावश्यक है, बाहरी भय उतने गम्भीर नहीं होते जितने कि भीतरी । गण के सभी सदस्य जन्म एवं कुल परम्परा मे समान होते हैं, किन्तु शौर्य, मेधा, शरीर - स्वरूप एवं धन में बराबर नहीं होते । आन्तरिक कलह उत्पन्न कर एवं घूस देकर बाह्य शत्रु गणों को तोड़ डालते हैं । अतः गणों की सुरक्षा एकता में ही पायी जाती है ।" उपर्युक्त शब्दों द्वारा महाभारत कई व्यक्तियों द्वारा चलाये गये शासन के दोषों का वर्णन करता है, यथा - ( १ ) भेद गुप्त नहीं रखा जा सकता, (२) लोभ एवं ईर्ष्या के कारण व्यभिचार बढ़ जाता है और नाश अवश्यम्भावी हो जाता है। एक अन्य स्थल पर महाभारत (शान्ति० ८१ ) ने वृष्णियों के संघ की ओर संकेत किया है। वृष्णि-संघ के अध्यक्ष थे कृष्ण । महाभारत में लिखा है कि संघ के नेता में चार गुण विशेष पाये जाने चाहिए, यथा दूरदर्शिता, सहिष्णुता, आत्म-निग्रह एवं अर्चनप्रवृत्ति त्याग । महाभारत में गण एवं संघ शब्द एक-दूसरे के पर्याय माने गये हैं । पाणिनि ( ३।३।८६) ने संघ का अर्थ गण बताया । पतञ्जलि ( महाभाष्य, जिल्द २, पृ० ३५६) ने संघ, समूह, समुदाय को समानार्थक कहा है । पाणिनि ने संघ के दो प्रकार बताये हैं, यथा ( 1 ) आयुधजीवी ( युद्ध करके जीविका कमाने वाले, ऐसे लोग आयुध रखते थे और समय-समय पर राजा द्वारा बुलाये जाने पर सेना में भर्ती होते थे या आवश्यकता पड़ने पर युद्ध करते थे ) तथा अन्य लोग, जो ऐसे नहीं थे । पाणिनि ने लिखा है कि बाहीक देश में संघों में ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा अन्य लोग पाये जाते हैं (५।३।११४ ) | आयुधजीवी संघों में थे वृक, त्रिगर्त, यौधेय तथा परशु ( ५।३।११५-११७) । कात्यायन ने अपने वार्तिक ( ४|१|१६८ ) में बताया है कि संघ और एकराजात्मकता में अन्तर है। कौटिल्य ने लिखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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