SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१२ धर्मशास्त्र का इतिहास ।१६) एवं सम्मान करना चाहिए, शान्ति एवं रक्षा की घोषणा करनी चाहिए, कुछ बन्दियों को छोड़ देना चाहिए और औपचारिक राज्याभिषेक की बाट जोहनी चाहिए। राजनीतिप्रकाश (पृ० ६२) के अनुसार राजा के मर जाने पर उत्तराधिकारी को मुकुट एक वर्ष के उपरान्त पहनाना चाहिए। किन्तु यदि कोई राजा गद्दी छोड़ दे तो उत्तराधिकारी को वर्ष भर जोहने के स्थान पर किसी शुभ दिन में राज्याभिषेक करा लेना चाहिए । विष्णुधर्मोत्तर (२७) ने अग्रमहिषी के गुणों का वर्णन विस्तार के साथ किया है। राजनीतिकौस्तुभ (पृ.० २४६-२५०) ने इसका उद्धरण दिया है। प्रमुख या पट्ट या अन रानी का राजा के साथ ही या अलग राज्याभिषेक कृत्य कर देना चाहिए । मनु (७७७) ने रानी के लिए भद्र कुल, समान जाति, सौन्दर्य, अच्छे गुण से सम्पन्न होना आवश्यक माना है। राजतरंगिणी (८1८२) ने टिप्पणी की है कि राजा उच्चल की रानी जयमती सदा पति के साथ आधे सिंहासन पर बैठती थी। शिवाजी का राज्याभिषेक सन् १६७४ ई० में बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुआ था। इसके विस्तृत अध्ययन के लिए देखिए 'शिव-छत्रपति महाराज-वरित' जिसका सम्पादन श्री मल्हार रामराव चिटनिस (सन् १८८२, पृ०१२०१२५) ने मराठी भाषा में किया है। शिवाजी का उपनयन ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की पंचमी को हुआ था। सात दिनों तक भांति-भांति के कृत्य होते रहे। विनायकशान्ति, ग्रहशान्ति, ऐन्द्री एवं पौरंदरी का सम्पादन हुआ और ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी को उनके सिर पर मकुट रखा गया। । प्रमुख मन्त्रियों द्वारा राजकीय प्रतीक, यथा छत्र, चमर एवं बेंत की छड़ी आदि राजा के सम्मुख रख ज व जाते थे। इन प्रतीकों को विशिष्ट ढंग से तैयार कराया जाता था। विशेष रूप से देखिए कालिदास व बृहत्संहिता (अध्याय ७१ एवं ७२) । कभी-कभी राज्याभिषेक के समय राजा दूसरा नाम धारण कर लेता था जिसे अभिषेक-नाम कहा जाता था। कुछ राजाओं ने अश्वमेध सम्पादन के समय भी नाम-परिवर्तन किये थे, यया कुमारगुप्त प्रथम ने अपने को महेन्द्र नाम से घोषित किया । इस विषय में देखिए डा० आर० सी० मजुमदार की पुस्तक 'चम्पा' (पृ० १५७) ।। विष्णुधर्मोत्तर (२।१६२) का कहना है कि प्रति वर्ष राज्याभिषेक के दिन वैसे ही कृत्य किये जाने चाहिए। ब्रह्मपुराण ने भी यही बात कही है (देखिए राजनीतिप्रकाश, पृ० ११५, कौस्तुभ, पृ० ३७६, राजधर्मकाण्ड, पृ०१०)। ____ मनु (७।२१७-२२०) ने राजा को विष से बचाने के नियम बतलाये हैं। उनका कहना है कि राजा को वही भोजन करना चाहिए जो भली भांति परीक्षित हो चुका हो और जो पूर्ण विश्वासी व्यक्ति द्वारा तैयार किया गया हो और जिस पर विष-शान्ति वाला मन्त्र फूंक दिया गया हो । राजा को अपनी भोज्य वस्तुओं में विषमोचक वस्तुएँ मिला देनी चाहिए और ऐसे रत्न धारण करने चाहिए जो विष को मार सकें। वैसी ही स्त्रियों को राजा के स्नानार्थ, लेपनार्थ, वीजनार्थ तथा स्पर्शार्थ नियुक्त करना चाहिए जो भक्त हों और जिनके वस्त्राभूषण आदि की भली भाँति परीक्षा ली जा चुकी हो । राजा को अपनी सवारियों, शय्या, भोजन, स्नान, लेपन आदि के विषय में विशेष सतर्क रहना चाहिए। कामन्दक (७८) एवं मत्स्यपुराण (२१६११०) ने भी मनु (७।२२०) की ही बातें कही हैं । कौटिल्य (१।१७) का कहना है कि राजा को सर्वप्रथम अपने पुत्रों एवं रानियों से व्यक्तिगत सुरक्षा करनी चाहिए और इसके उपरान्त अपने नातेदारों एवं शत्रुओं से अपने राज्य की रक्षा करनी चाहिए। कौटिल्य ने पुत्रों--राजकुमारों से सुरक्षा रखने के विषय में राजा को मन्त्रणा दी है। इस विषय में कई पूर्व राजनीतिज्ञों की सम्मतियाँ उद्धत की गयी हैं, यथा--गुप्त दण्ड (भारद्वाज के मतानुसार), एक स्थान पर रक्षकों के बीच रखना (विशालाक्ष), सीमा-रक्षकों के साथ एक दुर्ग में रखना(पराशर), अपने राज्य से दूर किसी सामन्त के दुर्ग में रसना (पिशुन), माता के कुल में भेजना (कोणपदन्त), राजकुमारों को विषयासक्त बना देना (वातव्याधि), जन्म के पूर्व एवं जन्म के उपरान्त उचित सावधानी एवं शिक्षा देना (स्वयं कौटिल्य)। इससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy