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राज्याभिषेक
६०६ कहलाये । इस ब्राह्मण (३६) ने यह बतलाया है कि ऐन्द्र महाभिषेक की विधि के अनुसार ही क्षत्रिय को शपथ लेनी चाहिए तथा मुकुट धारण करना चाहिए। पुरोहित के समक्ष क्षत्रिय जो शपथ लेता है वह इस प्रकार की है-"यदि में आपको घृणा की दृष्टि से देखू या आपके प्रति असत्य ठहरूं तो जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जो कुछ यज्ञों या अच्छे कर्तव्यों द्वारा गुण अर्जित करूं, वे सब तथा मेरे लोक, मेरे सत्कार्य, प्राण, सन्तति आदि सभी आप नष्ट कर दें।" इसके उपरान्त ऐतरेय ब्राह्मण ने राज्याभिषेक के सम्भारों (सामग्रियों) की सूची दी है (३६।२), यथा न्यग्रोध, उदुम्बर, अश्वत्थ, लक्ष नामक वृक्षों के फल, छोटे अक्षत, बड़े अक्षत, प्रियंगु एवं जौ, उदुम्बर का पलंग, उदुम्बर का चतुर्मुख चमस, दही, घृत, मक्खन, वर्षा का जल । मन्त्रों का वर्णन ३६ । ३-४ में है और दक्षिणा का ३६।६ में है । राजसूय में, जिसे केवल क्षत्रिय ही कर सकते हैं, प्रमुख कृत्य है अभिषेचनीय, जिसमें उदुम्बर के सतह बरतनों में रखे गये सत्रह उद्गमों के जल से स्नान किया जाता है। राजनीतिप्रकाश ( पृ० ६२ - १०७ ) ने ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित राज्याभिषेक का वर्णन किया है । राजसूय में जो बहुत-से कर्म होते हैं, उनमें एक है" रत्निनां हवींषि " (१२ रत्नों के घरों की आहुतियाँ) । ये रत्न प्रतीकात्मक महत्त्व रखते हैं । वास्तव में वह राजा, जिसका अभिषेक होता है, अपने राज्य के बड़े कर्मचारियों की महत्ता स्वीकार करता है और वे रत्न लोग उसे राजा के रूप में स्वीकार करते हैं । राजसूय के अभिषेचन - कृत्य के दो भाग हैं ; (१) धार्मिक एवं (२) लौकिक अर्थात् साधारण लोगों द्वारा सम्पादित होने वाला । सर्वप्रथम अध्वर्यु तथा अन्य पुरोहित विभिन्न बरतनों में रखे गये विभिन्न स्थानों से प्राप्त जल से राजा के ऊपर जल सिंचन या अभिषेक करते हैं । इसके उपरान्त राजा का भाई, कोई मित्र क्षत्रिय, कोई वैश्य भी ऐसा ही करता है । इस अंतिम अभिषेक - कृत्य का तात्पर्य है साधारण जनता द्वारा राज्याभिषेक का समर्थन, अथवा राज्याभिषेक का लौकिक महत्त्व ।
तैत्तिरीय संहिता (२।७।१५-१७) ने राज्याभिषेक का वर्णन किया है । इसमें ज्ञात आहुतियों के लिए सात मन्त्र दिये गये हैं । व्याघ्रचर्म पर राजा बैठाया जाता है। राजा पर ऐसे जल का अभिषेक होता है जिसमें जौ के अंकुर एवं दूर्वा दल मिले रहते हैं । मन्त्रों के साथ राजा रथ पर चढ़ता है । पुरोहित एवं रथ को मन्त्रों के साथ सम्बोधित किया जाता है। अनुमति, पृथिवी ( माता के रूप में ) एवं स्वर्ग ( पिता के रूप में ) से राज्याभिषेक के समर्थन के लिए प्रार्थना
जाती है । राजा सर्वप्रथम सूर्य की ओर देखता है और तब अपनी प्रजा की ओर। इसके उपरान्त राजा का क्षौरकर्म होता है और उसके सिर एवं बाहुओं पर घृत- मिश्रित दूध मला जाता है ।
नीतिमयूख ( पृ० ४-५ ), राजनीतिप्रकाश ( पृ० ४२-४३ ) एवं राजधर्म कौस्तुभ ( पृ० ३३५ - ३३६) ने गोपथब्राह्मण में दिये गये राज्याभिषेक के कृत्यों का उद्धरण इस प्रकार दिया है १ ६" आवश्यक सामग्री एकत्र करके, यथा १६ कलश, बेल के १६ फल, वल्मीक की मिट्टी ( दीमकों के ढह की मिट्टी), सभी प्रकार के छाँटे हुए (जिनकी
१६. आथर्वणगोपथ ब्राह्मणे - अथ राज्ञोभिषेकविधिं व्याख्यास्यामः । बिल्वप्रभृतीन्सम्भारान् संभृत्य षोडश कलशान् षोडश बिल्वानि वल्मीकस्य च मृत्तिकां सर्वान्न सर्वरसान् सर्वबीजानि । तत्र चत्वारः सौवर्णाश्चत्वारो राजताश्चत्वारस्तानाश्चत्वारो मृन्मयाः कुम्भाः । तान् ह्रदे सरसि वोर्ध्वस्रुतो नामनाम इत्युदकेन पूरयित्वा वेदिपृष्ठे संस्थाप्य कुम्भेषु बिल्वमेकैकं दद्यात् । सर्वान्न सर्वरसान् सर्वबीजानि च प्रक्षिप्याभयैरपराजितैरायुष्यैः स्वस्त्ययनैः सौवर्णेषु संपातान्, संत्रान्यः संसिक्तीयैश्चैव राजतेषु, भैषज्येर होमुच्यं स्ताम्र षु, संवेशसंवर्गाभ्यां शन्तातीयः प्राणसूक्तेन च मृन्मयेषु । ततस्तान् कलशान् गृहीत्वा श्रोत्रियः पवित्रतमं राजानमभिषिञ्चेत् । भूमिमिन्द्र ं च वर्धयित्वा क्षत्रियं म इति ( इममिन्द्र वर्धय क्षत्रियं म इति ? ) सिंहासनमारूढमभिमन्त्रयेत् । एवमभिषिक्तस्तु रसान्प्राश्नीयाद् विप्रेभ्यश्च बचाद् गोसहल सदस्येभ्यः कत्र* ग्रामवरम् । विपुलं यशः प्राप्नोति भुक्ते घरां जितशत्रुः सदा भवेदिति ॥ राजनीतिप्रकाश, पृ० ४२-४३ । राजधर्म कौस्तुभ, पृ० ३३५-३३६, नीतिमयूख, पृ० ४-५ ।
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