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________________ ६०८ धर्मशास्त्र का इतिहास इस ग्रन्थ ने कई प्रमाणों के आधार पर कहा है कि 'चक्रवर्ती', 'सम्राट्', 'अधीश्वर' एवं 'महाराज' शब्द समानार्थक हैं । प्राचीन भारत में सम्राट् की उपाधि के लिए राजा 'राजसूय' एवं 'अश्वमेध' यज्ञ करते थे ( सभापर्व १३।३० ) । सेनापति पुष्यमित्र ने दो अश्वमेध किये थे । खारवेल (जैन राजा) ने भी अश्वमेध यज्ञ किया था । वाकाटक राज प्रवरसेन प्रथम ने चार अश्वमेध यज्ञ किये थे । भारशिवों ने दस अश्वमेध करके अपने को प्रसिद्ध किया । इसी प्रकार सालंकायन राजा विजयदेव वर्मा, चालुक्यराज पुलकेशी प्रथम आदि राजाओं ने अश्वमेध यज्ञ किये थे । सेनापति पुष्यमित्र ने राजसूय यज्ञ किया था ( मालविकाग्निमित्र, अंक ५) । कदम्बों ने भी अश्वमेध यज्ञ किये थे । विष्णुकुण्डी महाराज माधव वर्मा ने ११ अश्वमेध तथा १०० अग्निष्टोम यज्ञ किये थे । कौटिल्य (७/१६) का कहना है कि विजयी को विजित राष्ट्र की भूमि का लोभ नहीं करना चाहिए और न विजित राजा की पत्नियों, पुत्रों, धन-सम्पत्ति पर अधिकार करना चाहिए, प्रत्युत उसे चाहिए कि वह विजित के सम्बन्धियों को उनके पूर्व स्थान पर पुनः नियुक्त कर दे, राजगद्दी पर भूतपूर्व राजा के पुत्र को बैठा देना चाहिए। जो राजा विजित देश के राजा को बन्दी बनाता है, उसकी पत्नियों, पुत्रों, धन-सम्पत्ति आदि का लोभ करता है, वह बहुत-से राजाओं के मण्डल को अपने विरुद्ध उभाड़ देता है । याज्ञवल्क्य ( ११३४२-४३ ) ने लिखा है कि विजयी राजा को विजित राजा के राष्ट्र की रक्षा अपने राज्य के समान ही करनी चाहिए, उसकी परम्पराओं, रीतियों आदि पर अपनी संस्कृति का दुःसह भार नहीं लादना चाहिए । विष्णुधमंसूत्र ( ३।४२ एवं ४७-४६) ने लिखा है कि विजेता को विजित देश की परम्पराओं का नाश नहीं करना चाहिए। उसे चाहिए कि वह अपनी राजधानी में मृत राजा के कुछ सम्बन्धियों को रखे और यदि राजवंश निम्न जाति का न हो तो उसका नाश न करे। यही बात मनु ( ७।२०२-२०३ ) एवं अग्निपुराण (२३६।२२ ) ने भी कही है। रामायण (७।६२।१८-१६) में आया है कि विजयी को चाहिए कि वह विजित देश पर दूसरे राजा को प्रतिष्ठापित कर दे, जिससे स्थायी शासन चल सके। और देखिए शान्तिपर्व ( ३३१४३ - ४६ ) । कात्यायन ( राजनीतिप्रकाश द्वारा उद्धृत, पृ० ४११ ) का कहना है कि यदि विजित राजा अपराधी हो तो भी उसके राज्य का नाश नहीं करना चाहिए। क्योंकि समस्त जनता की सम्मति लेकर उसने युद्ध नहीं किया था। स्पष्ट है कि विजित राजा के मन्त्रियों पर विपत्ति घहरा सकती है, किन्तु प्रजा पर नहीं। यह सुन्दर आदर्श सामान्यतः प्राचीन काल के विजयी सम्राटों द्वारा पालित होता था । रुद्रदामा एवं समुद्रगुप्त ने इस आदर्श का पालन किया था, उन्होंने विजित राष्ट्रों पर उनके भूतपूर्व शासकों को पुनः राजा-रूप में स्वीकृत किया था । अभिषेक राज्याभिषेक एक बहुत ही पवित्र एवं महत्त्वपूर्ण संस्कार माना जाता था। हम यहां उसका विस्तृत वर्णन नहीं उपस्थित कर सकते । मध्य काल के ग्रन्थों में बहुत-सी विधियां उल्लिखित हैं । राजनीतिप्रकाश ( पृ० ४३ - ११२ ), नीतिमयूख ( पृ० १ १३ ) एवं राजध मं कौस्तुभ ( पृ०२३७-३७४ ) ने ऐतरेय ब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण, सामविधान ब्राह्मण, ब्रह्मपुराण, विष्णुधर्मोत्तर तथा अन्य ग्रन्थों के उद्धरण देकर राज्याभिषेक की विधियों का वर्णन किया है। राजधर्मकौस्तुभ ( पृ० २३६ ) का कथन है कि विष्णुधर्मोत्तर में बहुत विस्तार पाया जाता है, यदि कोई चाहे तो उस पुराण की विधि अपना सकता है, जो ऐसा न कर सके उसके लिए विकल्प है, या जो ऋग्वेद का अनुयायी है वह ऋग्विधान का ढंग अपनाये और जो सामवेदी है वह सामविधान की परम्परा अपनाये, या सभी लोग पुराण का ढंग अपनायें । ऐतरेय ब्राह्मण (३८) में इन्द्र का महाभिषेक (ऐन्द्र महाभिषेक) वर्णित है । ऐतरेय ब्राह्मण ने इसी सिलसिले में यह भी बतलाया है कि किस प्रकार दक्षिण में सात्वत राजा लोग अभिषेक के उपरान्त भोज कहलाये, पूर्व देशों के राजा सम्राट् पश्चिम के स्वराट् तथा उत्तर के ( हिमालय के उस पार के अर्थात् उत्तर कुरु एवं उत्तर मद्र के ) विराट् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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