SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजपद का विकास ६०७ जिसके प्रभुत्व के अन्तर्गत सारा संसार आ जाता है, सम्राट् हो जाता है ।" १५ सभी स्थलों पर 'संसार' का तात्पर्य है केवल 'भारतवर्ष । प्राचीन काल में सम्राट् लोग, अनेक सामन्तों या छोटे-मोटे राजाओं पर आधिपत्य करने के स्थान पर दूसरों द्वारा अपनी शक्ति या प्रभुत्व अंगीकार कर लेने को अधिक महत्त्व देते थे । दिग्विजयों का वर्णन ( महाभारत के आदिपर्व में पाण्डु की, सभापर्व में अर्जुन तथा अन्य पाण्डवों की दिग्विजयों का वर्णन ) यह प्रकट करता है कि वास्तव में सम्राट् देश पर देश जीतकर अपने राज्य में सम्मिलित नहीं करते थे, प्रत्युत बहुत से राजाओं को कर देने तथा प्रभुत्व स्वीकार कर लेने पर विवश करते थे । अर्जुन ने स्पष्ट कहा है कि मैं सभी राजाओं से कर लेकर आऊँगा (सभापर्व २५।३ ) । ... और हम जानते हैं कि विजित देशों के राजा लोग हीरे-जवाहरात, सोना-चाँदी, हाथी-घोड़े, गाय आदि लेकर पाण्डव सम्राट् के पास आये थे । प्रयाग की स्तम्भ प्रशस्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त को भी प्रत्यन्त ( सीमा वाले) राजाओं आदि ने उसी प्रकार कर, भेंट, पुरस्कार आदि दिये थे । शान्तिपर्व (६६) का कहना है कि धर्म के अनुसार ही विजय करनी चाहिए। साम्राज्य का तात्पर्य यह नहीं था कि विजित देश पर भाषा या शासन विधि लाद दी जाय, जैसा कि आजकल के बहुत से साम्राज्यों ने किया है। यूरोपीय साम्राज्यवाद के साथ यूरोप की सभ्यता एवं संस्कृति का विकास होता गया और विजित राष्ट्रों पर नयी संस्कृति का भार लाद दिया गया था । किन्तु प्राचीन भारतीय साम्राज्यवाद की गाथा कुछ और है, हम जिस पर आगे प्रकाश डालेंगे। कौटिल्य (१२।१) ने तीन प्रकार के आक्रामकों के नाम गिनाये हैं; ( 1 ) धर्मविजयी ( जो केवल अधीनता स्वीकार कर लेने पर शान्त हो जाते हैं), (२) लोभविजयी (जो कर एवं भूमि पाकर सन्तुष्ट हो जाते हैं) तथा (३) असुरविजयी, जो न केवल कर एवं भूमि से ही सन्तुष्ट होते, प्रत्युत विजित देशस्थ राजाओं के पुत्रों, पत्नियों एवं प्राणों को भी हर लेते हैं । और देखिए नीतिवाक्यामृत ( पृ० ३६२-३६३) एवं युद्धसमुद्देश, जिन्होंने इसी प्रकार की व्याख्या की है। प्रथम एवं द्वितीय प्रकारों के विजित राष्ट्रों के शासन-प्रबन्ध आदि पर विजयी राष्ट्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उनकी व्यवस्थाएँ, संस्थाएँ एवं शासन-विधि ज्यों-की-त्यों रह जाती है । अशोक ने अपनी विजय को धर्म विजय कहा है, अर्थात् उसने केवल अपने प्रभाव को अंगीकार कराकर सन्तोष कर लिया था । पल्लवराज शिवस्कन्द वर्मा ने, जिसने अग्निष्टोम वाजपेय एवं अश्वमेध यज्ञ कर डाले थे, अपने को धम्म - महाराजाधिराज ( धर्म विजयी सम्राट् ) कहा है। पृथ्वीषेण को भी धर्मविजयी कहा गया है ( प्रवरसेन द्वितीय का दुदिया नामक पत्रक, एपिफिया इण्डिका, जिल्द ३, पृ० २५८ ) । समुद्रगुप्त की दक्षिण भारत वाली विजय धर्मविजय मात्र थी । 1 कालान्तर में राजाओं ने भारी-भरकम उपाधियाँ धारण करना आरम्भ कर दिया था । अशोक ने, जिसका साम्राज्य अफगानिस्तान से बंगाल की खाड़ी तक तथा दक्षिण में मैसूर तक विस्तृत था, अपने को मात्र राजा कहा है। खारवेल को केवल महाराज एवं कलिंगाधिपति कहा गया है ( हाथीगुम्फा अभिलेख ) । कुषाण सम्राट् हुविष्क ने अपने को महाराज - राजाति राज- देवपुत्र कहा है । समुद्रगुप्त को केवल महाराज कहा गया है। किन्तु कालान्तर के राजाओं ने अपने को परमभट्टारक- महाराजाधिराज या परमभट्टारक- महाराजाधिराज परमेश्वर कहा है । प्राचीन काल के ग्रन्थों ने राजा या सम्राट् के विषय में कुछ कहते हुए लम्बी-लम्बी उपाधियाँ नहीं लिखी हैं। शान्तिपर्व ( ६८।५४ ) का कहना है कि राजा को राजा, भोज, विराट्, सम्राट्, क्षत्रिय, भूपति एवं नृप नामों से पुकारा जाता है । दशरथ को राजा (अयोध्याकाण्ड २।२) एवं महाराज ( १८ । १५ एवं ५७।२० ) कहा गया है। राजनीतिरत्नाकर के अनुसार राजाओं की तीन कोटियाँ होती हैं; (१) सम्राट्, (२) जो कर देता है वह और (३) जो कर नहीं देता वह (किन्तु सम्राट् नहीं है ) । ॥ सभा० १५. गृहे गृहे हि राजानः स्वस्य स्वस्य प्रियंकराः । न च साम्राज्यमाप्तास्ते सम्राट्शब्दो हि कृच्छ्रभाक् । १५२; प्रभुर्यस्तु परो राजा यस्मिन कवशे जगत् । स साम्राज्यं महाराज प्राप्तो भवति योगतः ॥ सभा० १४।६-१० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy