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________________ ६०६ धर्मशास्त्र का इतिहास ऐतरेय ब्राह्मण ने प्राचीन भारत के १२ सम्राटों एवं शतपथ ब्राह्मण (१३।५।४।१-१६) ने १३ सम्राटों के नाम गिनाये हैं। पाणिनि (५।१।४१-४२ ) ने 'सार्वभौम' का अर्थ 'सम्पूर्ण पृथिवी का पति या स्वामी' लगाया है। अमरकोश का कहना है कि 'राजा', 'पार्थिव', 'क्ष्माभृत्', 'नृप', 'भूप' एवं 'महीक्षित्' एक दूसरे के पर्याय हैं और उनका अर्थ है शासक, किन्तु वह शासक या राजा जिसके समक्ष सभी सामन्त झुक जाते हैं, 'अधीश्वर', 'चक्रवर्ती' या 'सार्वभौम' की उपाधि पाता है और ये अन्तिम शब्द एक-दूसरे के पर्याय हैं । क्षीरस्वामी का कहना है कि चक्रवर्ती राजा वह है जो "राजाओं के चक्र या वृत्त पर राज्य करता है", या जो अपनी आज्ञाएँ राजाओं के मण्डल पर चलाता है । 'चक्रवर्ती' शब्द 'सार्वभौम' शब्द के उपरान्त ख्याति में आया है, किन्तु है वह भी अति प्राचीन (मैत्री उपनिषद् ११४, सामविधान ब्राह्मण ३।५।२) । गौतम बुद्ध ने अपने को धर्मराज कहा है और धर्म चक्र चलाने वाला माना है । नानाघाट अभिलेख ( ई० पू० २०० ) में 'अप्रतिहतच कस्' (= चक्रस्य) शब्द आया है। खारवेल ने अपने को 'सुप्रवृत्तविजय चक्र' (सुपवतविजयचक) तथा 'पवृत्त-चक्र' (पवतचक) कहा है (हाथीगुम्फा अभिलेख ) । खारवेल की रानी ने अपने पति को कलिंग - चक्रवर्ती कहा है ( मञ्चपुरी अभिलेख ) । कौटिल्य ( ६ । १ ) ने चक्रवर्ती के राज्य की सीमा का उल्लेख यों किया है -- "समुद्र से लेकर उत्तर में हिमालय तक, जो एक सीधी पंक्ति में एक सहस्र योजन लम्बी है ।" राजशेखर की काव्यमीमांसा में भी यही बात पायी जाती है। कौटिल्य ने "चतुरन्तो राजा" अर्थात् "पृथिवी की चारों दिशाओं का राजा" कहा है। शान्तिपर्व ऐसे राजा का उल्लेख हुआ है जो सम्पूर्ण पृथिवी को अपने एक छत्र के अन्तर्गत रखता है। हर्षचरित ( ४ ) में हर्ष को सात चक्रवर्तियों का शासक बताया गया है। कुछ ग्रन्थों में छः चक्रवर्तियों के नाम इस प्रकार आये हैं--मान्धाता, धुन्धुमार, हरिश्चन्द्र, पुरूरवा, भरत, कार्तवीर्यं । सभापर्व ( १५/१५-१६) ने पाँच प्राचीन सम्राटों के नाम लिये हैं, यथा यौवनाश्व ( मान्धाता ), भगीरथ, कार्तवीर्यं, भरत एवं मरुत्त । इस विषय में विस्तृत जानकारी के लिए देखिए डा० एन० एन० ला की पुस्तक 'आस्पेक्ट्स आव ऐंश्येण्ट इण्डियन पालिटी' ( पृ० १७ - २१), जहाँ महाभारत, शतपथ ब्राह्मण एवं अन्य ग्रन्थों से प्राचीन सम्राटों के नाम चुनकर रखे गये हैं। चक्रवर्तित्व का आदर्श सभी राजाओं के सामने उपस्थित रहता था, इसका परिणाम यह हुआ कि राजा लोग चक्रवर्ती- पद के लिए आपस में सदैव लड़ा-भिड़ा करते थे । मान्धाता, भरत आदि सम्राटों के आदर्शों की प्राप्ति में लगे हुए अनेकों राजाओं के पारस्परिक युद्ध-वर्णनों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। चन्द्रगुप्त, अशोक, पुष्यमित्र, भारशिवों के भव नाग, प्रवरसेन, वाकाटक, समुद्रगुप्त, हर्ष आदि सम्राट् उपर्युक्त श्रेणी में ही आते हैं। मानी हुई बात है कि यदि चक्रवर्तित्व का आदर्श न भी रहा होता तो भी युद्ध बन्द न हुआ होता, क्योंकि प्राचीन काल में विश्व के सभी कोनों में युद्ध के बादल मंडराया करते और कोई न कोई राजा सम्राट् पद प्राप्त कर ही लेता था । मत्स्यपुराण (११४।६- १०) ने भारतवर्ष की लम्बाई-चौड़ाई का ब्यौरा दिया है, जो दक्षिण से उत्तर (कुमारी अन्तरीप से गंगा के उद्गम ) तक एक सहस्र योजन लम्बा कहा गया है। भारतवर्ष का विस्तार दस सहस्र योजन था ( चारों दिशाओं की सीमा को जोड़कर) । सभी सीमाओं पर म्लेच्छों का निवास था। पूर्व एवं पश्चिम में किरात एवं यवन रहते थे । जो राजा सम्पूर्ण भारतवर्ष को जीतता था उसे सम्राट् पद प्राप्त होता था । और देखिए ब्रह्मपुराण (१७१८) । शुक्रनीतिसार (१।१८३-१८७ ) के अनुसार एक सामन्त को वार्षिक आय थी प्रजा को बिना पीडित किये १ से लेकर ३ लाख रजत के कर्ष, माण्डलिक की आय थी ४ से १० लाख कर्ष, राजा की ११ से २० लाख कर्ष, महाराज की २१ से ४० लाख कर्ष, स्वराट् की ५१ से १ करोड़, विराट् की २ करोड़ से १० करोड़ और सार्वभौम की आय थी ११ करोड़ से ५० करोड़ । भले ही आज इन आँकड़ों का कोई विशेष महत्त्व नहीं है, किन्तु इनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सामन्त, राजा तथा सम्राट् में क्या विशेष अन्तर था । सभापर्व ( १५।२) का कहना है -- " प्रत्येक घर में राजा हैं जो अपने मन को प्रसन्न करने वाले कार्य करते हैं, किन्तु वे सम्राट् पद नहीं प्राप्त करते, क्योंकि यह अति कठिन है । वह राजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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