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________________ कलिवर्यों का विश्लेषण १००६ ब्राह्मणों के लिए सभी युगों में। किन्तु यह कथन भ्रामक है, क्योंकि आदिपर्व में आया है, कि शुक्राचार्य ने ही सर्वप्रथम ब्राह्मणों के लिए मद्य वजित ठहराया। देखिये इस ग्रंथ का खंड २, अ. २२ । कलिवर्ण्य वचन ने सभी द्विजों के लिए मद्यपान वर्जित माना है, किन्तु क्षत्रियों एवं वैश्यों ने इस उक्ति पर कभी ध्यान नहीं दिया। यहाँ तक कि आजकल कुछ ब्राह्मण इसका शौक से सेवन करते हैं। कलिवर्ण्य विनिर्णय, कृष्ण भट्ट एवं स्मृतिकौस्तुभ ने कहा है कि 'वामागम' सम्बन्धी शाक्त ग्रंथों में तीनों वर्णों द्वारा देवप्रतिमा पर मद्य चढ़ाना मान्य ठहराया गया है, और क्षत्रियों द्वारा विनायक-शमन-सम्बन्धी कृत्यों तथा मूल नक्षत्र में उत्पन्न बच्चे के लिए मद्य-प्रयोग ठीक माना गया है, किन्तु इस कलिवयं ने यह सब अमान्य घोषित कर दिया है। यदि हम उपर्युक्त ५५ कलिवज्यों का विश्लेषण करें तो हमें मनोरंजक परिणाम प्राप्त होंगे। इनमें एकचौथाई का सम्बन्ध श्रोत विषयों से है। बहुत-से ऐसे वचन हैं जो अग्निहोत्र, अश्वमेध, राजसूय, पुरुषमेध, सन्न, गोसव, पशुयज्ञ आदि यज्ञों को वजित करत हैं, और बहुत-से ऐसे हैं जो यज्ञ-विषयक बातों से सम्बन्धित है (देखिये सं० ११, १४-१६, २६-३०,३८,४८-५१ एवं ५४) । इनमें प्रथम नो का सम्बन्ध वैधानिक विषयों एवं सम्बन्धों से है । कुछ तो केवल जाति-सम्बन्धी हैं(सं० ५, १०, ३१, ४० एवं ४३) । कुछ वैवाहिक सम्बन्ध की पवित्रता, जटिल नैतिकता तथा स्त्रियों से सम्बन्ध रखनेवाली एवं शुचिता एवं भद्रता की भावना से उद्भूत हैं (सं० २, ३, ४, ५, ६, १५, २३,२४, ३३, ३६ एवं ५५) । कुछ दया, न्याय एवं सर्वसमता की भावनाओं पर आधारित हैं (सं० १, ८, २४, २५,४२) । कुछ ब्राह्मणों के शरीर की पवित्रता एवं उनकी उच्च सामाजिक स्थिति से सम्बन्धित हैं (सं० ७,१०,२७, २६ एवं ३०)। कुछ की उत्पत्ति स्वास्थ्य-सम्बन्धी सुविचारणाओं पर आधारित हैं (सं० १२, १६, २८, ३८,४१ एवं ४५) । कुछ का उदय पाप, प्रायश्चित्त एवं संस्कार-सम्बन्धी शुद्धता एवं अशुद्धता की भावनाओं से हबा है।सं०१३,१८-२१, २८ एवं ४४)। इनमें से दो ऐसे हैं जो वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रमों को वयं ठहराते हैं। जिससे आश्रम-सम्बन्धी प्राचीन योजना खंडित-सी हो जाती है (देखिये १७एवं ४७) । उपर्युक्त कलिवर्य-सम्बन्धी विवेचन उन लोगों का मुहतोड़ जवाब है जो "अप्रगतिशील पूर्व" के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। प्राचीन काल के अत्यधिक स्थिर समाजों के अन्तर्गत भी सामाजिक भावनाओं एवं आचारों में पर्याप्त गम्भीर परिवर्तन होते रहे हैं। बहुत-से ऐसे आचार एवं व्यवहार, जिनके पीछे पवित्र वेदों(जो स्वयमदभूत एव अमर माने गये हैं) का आधार था, और जिनके पीछे आप०, मनु एवं याज्ञवल्क्य की स्मृतियों की प्रामाणिकता थी, वे या तो त्याज्य ठहराये गये या प्रचलित मनोभावों के कारण गहित माने गये। महान् विचारकों ने कलियुग के लिए ऐसी व्यवस्थाएँ प्रचलित की जिनके फलस्वरूप धार्मिक आचार-विचारों एवं नैतिकता-सम्बन्धी भावनाओं में यथोचित परिवर्तन किया जा सका। कलिवर्ण्य वचनों ने ऐसे लोगों को भी पूर्ण उत्तर दिया जो धर्म (विशेषतः आचार धर्म) को अपरिवर्तनीय एवं निर्विकार मानते रहे हैं। इस अध्याय के विवेचन से पाठकों को लगा होगा कि वेद एवं प्राचीन ऋषियों तथा व्यवहार-प्रतिपादकों के अत्यन्त प्रामाणिक सिद्धान्त अलग रख दिये गये, क्योंकि वे प्रचलित विचारों के विरोध में पड़ते थे । जो महानुभाव भारतीय समाज से सम्बन्ध रखने वाले विवाह, उत्तराधिकार आदि विषयों में सुधार करना चाहते हैं, उन्हें इस अध्याय में उल्लिखित बातें प्रेरणा देंगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है। हमने यह देख लिया है कि कलिवयं उक्तियों के रहते हुए भी आज बहुत-से घोर और घृणित आचार हमारे समाज में अभी तक घुन की तरह पड़े हुए हैं, यथा मातुल-कन्या-विवाह, सन्यास, अग्निहोत्र और श्रोत पशयज्ञ । यद्यपि ये अब उतने प्रचलित नहीं हैं। __ कुछ ग्रंथ कलिवयं वचनों के साथ दो और वचन जोड़ देते हैं जिनका तात्पर्य यह है-शाप अथवा अनिष्टकारी बचन, अशुभ चिह्न, स्वप्न, हस्तविद्या, अलौकिक वचनों का श्रवण, मनौती (प्रार्थना स्वीकृत हो जाने पर किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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