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धर्मशास्त्र का इतिहास
को श्रुति-विरुद्ध माना है जो गृहस्थ के काले बाल रहने तक अग्निहोत्र करते रहने के सम्बन्ध में है, और इसी से उसे अमान्य ठहराया है। इस विषय में देखिये सदाचार सम्बन्धी इस खंड का अध्याय ३२ ।
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(५४) पशु यज्ञ - - मार्कण्डेय पुराण (अपरार्क पृ० ६२६ ) ने कलियुग में पशुयज्ञ वर्जित कर दिया है । यद्यपि क्रमशः सामान्य भावना यही रही है कि श्राद्धों एवं मधुपर्क में मांसदान न किया जाय, तथापि सभी युगों में पशुयज्ञ होते रहे हैं और आज भी विरोधों के रहते हुए भी यही परिपाटी चलती आ रही है ।
(५५) मद्यपान - वैदिक काल में पुरोहित लोग सोम का पान करते थे और सुरां का प्रयोग साधारण लोग करते थे, जो साधारणतः देवताओं को नहीं दी जाती थी। सोम और सुरा का भेद लोगों को ज्ञात था ( तै० सं० २। ५।१।१; वाज० सं० १६।७ एवं शत० ब्रा० ५।१।५।२८ ) । शत० ब्रा० (५।१।५।२८) ने अन्तर बतलाया है - "सोम सत्य है, समृद्ध है और है प्रकाश, सुरा असत्य है, विपन्नता है और है अन्धकार ।" सौतामणी इष्टि में एक ब्राह्मण सुरा पान के लिए पारिश्रमिक पर बुलाया जाता था और यदि कोई ब्राह्म नहीं मिलता था तो सुरा चींटियों के ढूह पर उड़ेल दी जाती थी ( तै० ब्रा० १।८।६ एवं शबर - जै० ३।५।१४-१५) । काठ कसंहिता ( १२।१२ ) से पता चलता है कि उस काल तक आते-आते ब्राह्मणों ने सुरापान को पापमय मान लिया था । छांदोग्योपनिषद् ( ५।१०।६) में मद्यपान पाँच प्रकार के महापापों में गिना गया है। आश्वलायनगृह्यसूत्र ( २।५।३।५ ) में आया है कि अन्वष्टका के कृत्यों में जब पुरुष - पितरों को पिण्डदान किया जाता हैं तो नारी पितरों यथा--माता, पितामही एवं प्रपितामही को सुरा एवं भातका माँड़ दिया जाता है । 'निर्णयसिन्धु' ( ३, पृ० ३६७) ने आश्वलायन के इस वचन का उल्लेख किया है और कहा है कि कलिवर्ज्य वचन ने मतवाले करनेवाले पदार्थों के साथ इसे भी वर्जित माना है ।
मद्य शब्द उन सभी प्रकार के पेय पदार्थों की ओर संकेत करता है, जिन्हें पीकर लोग मतवाले हो उठते हैं । सुरा के तीन प्रकार कहे गये हैं-- ( १ ) गुड़ या राब से उत्पन्न की हुई, (२) मधु या मधूक- पुष्पों (महुआ ) या अंगूरों से उत्पन्न तथा (३) आटे से उत्पन्न की हुई ( मनु ११।६४, विष्णु २२८१ एवं संवर्त ११७ ) । विष्णु (२२/८३८४) ने मद्य के दस प्रकार गिनाकर उन्हें ब्राह्मणों के लिए अस्पृश्य माना है । गौ० ( २।२५), आप० घ० सू० (१1५ १७।२१), मनु ( ११६५) ने ब्राह्मणों के लिए जीवन के सभी स्तरों में मद्य को वर्ज्य माना है । आप ० ( १७|२१| ८ ), वसिष्ठ (१।२० ), मनु ( ११।५४ ) एवं विष्णु ( ३५।१) ने सुरापान को पाँच महापातकों में गिना है और याज्ञ० ने इस सिलसिले में 'सुरा' के स्थान पर 'मद्य' का प्रयोग किया है। बोधा० (१।१।२२ ) ने उत्तरदेशीय ब्राह्मणों के विशिष्ट पाँच आचरणों में सीधु को भी सम्मिलित किया है और उसे निन्द्य माना है। मनु के सुरा-संबंधी तीन प्रकारों के विषय में विभिन्न व्याख्याएँ उपस्थित की गयी हैं । विश्वरूप (याज्ञ०३।२२२), 'मिताक्षरा' (याज्ञ० ३।२५३), 'अपरार्क' ( पृ०१०६६) आदि ने कहा है कि सुरा-पेष्टी (आटे से बना पेय पदार्थ ) है और ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों के लिए वर्जित है, इसका पान महापातकों में गिना जाता है। इन लोगों ने सभी युगों में ब्राह्मणों के लिए मदोन्मत्त करने वाले पदार्थों का पान वर्जित माना है, किन्तु पेष्टी (जो राब या महुआ से न बनायी जाय ) के अतिरिक्त अन्य मदोन्मत्त करने वाले पदार्थों को क्षत्रिय एवं वैश्यों के लिए वर्जित नहीं ठहराया है। मनु ( ११/६३ ) का कहना है कि सुरा पक्वान (चावल) के उच्छिष्ट से बनायी जाती है, अतः तीन उच्च जातियों के सदस्यों के लिए त्याज्य है। इससे स्पष्ट होता है कि ने सुरा का अर्थ केवल पैष्टी ( चावल के भात से बना पेय पदार्थ) लिया हैं। विष्णु ( २२।८४ ) ने स्पष्ट कहा है कि क्षत्रिय वैश्य मद्यों के दस प्रकारों के स्पर्श से अपवित्र नहीं होते । उद्योगपर्व ( ६६ । ५) में कृष्ण और अर्जुन मदोन्मत्त दिखलाये गये हैं और तन्त्रवार्तिक ने इसे बुरा नहीं माना है, क्योंकि वे दोनों क्षत्रिय थे । शूद्रों के लिए मद्यपीना वर्जित नहीं माना गया था। सभी वर्णों के ब्रह्मचारियों को किसी प्रकार का भी मद्य सेवन मना था । 'अपरार्क' (पु० ६३) ने ब्रह्मपुराण को उद्धृत कर कहा है कि कलियुग में तीन उच्च वर्णों के लिए मद्यपान वर्ज्य है, किन्तु
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