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________________ कलिवों की तालिका १००७ कृत्य हो जाता है तो वे कतिपय देवताओं को समर्पित किये जाते है और तब यूपों से उन्हें अलग कर दिया जाता है, ११ बकरे काटे जाते हैं और उनका मांस एवं उनके शरीरांशों की आहुतियाँ दी जाती हैं। वाजसनेयी संहिता के टीकाकार के मत से इसका आरम्भ चैत्र शुक्ल दशमी से होता है और यह ४० दिनों तक चलता रहता है । इस अवधि में २३ दीक्षाएं, १२ उपषद् एवं ५ सूत्य किये जाते हैं (वे दिन, जब सोमरस निकाला जाता है)। इस याग के उपरान्त यजमान संन्यासी होकर वन में चला जाता है (आप० श्री० २०१२४११६-१७)। (५०) अश्वमेध--तै० सं० (२३।१२।२) का कथन है--"जो अश्वमेध यज्ञ करता है, वह ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है" (तरति ब्रह्महत्यां योश्वमेधेन यजते) । इस वैदिक प्रमाण के रहते हुए भी बहन्नारदीय एवं अन्य पुराणों ने इसे वजित कर दिया है, किन्तु किसी ने इस वर्जना पर कान नहीं दिया और ऐतिहासिक काल के कतिपय राजाओं ने इसे सम्पादित किया (ई० पू० २०० सन् से १८ वीं शताब्दी तक, राजा जयसिंह अन्तिम अश्वमेध यज्ञ करनेवाले हैं। देखिये इस ग्रंथ का खंड २, अ०३५)। (५१) राजसूय--यह एक जटिल कृत्य था जो अनवरत दो वर्षों तक चलता रहता था। इसे कोई क्षत्रिय ही कर सकता था। देखिये इस ग्रंथ का खंड २, अ० ३४ । कलिंगराज खारबेल ने इसे सम्पादित किया था (एपि० ६०, जिल्द २०, पृ०७१ एवं ७६) । नानाघाट के अभिलेख (आर्योलॉजिकल सर्वे ऑव वेस्टर्न इण्डिया, जिल्द ५, पृ० ६०) से पता चलता है कि रानी नायनिका ने भी इसे सम्पादित किया था। (५२) नैष्टिक ब्रह्मचर्य--वैदिक ब्रह्मचारियों के दो प्रकार थे; (१) उपकुर्वाण (जो घर लौटते समय कुछ गुरुदक्षिणा देते थे) एवं (२) नैष्ठिक (जो मृत्यु पर्यंत ब्रह्मचारी या विद्यार्थी रहते थे)। देखिये इस ग्रंथ का खंड ३, अ० २६ । हारीत, दक्ष (१७) एवं अन्य लोगों ने इन दोनों प्रकारों का उल्लेख किया है किन्तु याज्ञ० (१। ४६), व्यास (१४१) एवं विष्णुध० सू० (२८।४६) ने नैष्ठिक का नाम और वर्णन दोनों दिये हैं । मनु (२॥२४३२४४), याज्ञ ० (१।४६-५०) एवं वसिष्ठ (७॥४-५) ने कहा है कि नैष्ठिक ब्रह्मचारी को मृत्यु पर्यत गुरु के साथ रहना चाहिये । गुरु की मृत्यु के उपरान्त उसके पुत्र के साथ या गुरुपत्नी के साथ रहना चाहिये और अग्निहोत्र करते रहना चाहिये, यदि वह मृत्यु पर्यंत अपनी इन्द्रियों का निग्रह करता रहता है तो ब्रह्मत्व को प्राप्त करता है और पुनः जन्म नहीं लेता; अर्थात् मुक्त हो जाता है । यह बहुत ही कष्टसाध्य जीवन था, वासनाएँ प्रबल होती हैं, अतः बहनारदीय आदि ने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य को वजित कर दिया है। (५७) लम्बी अवधि का ब्रह्मचर्य--बौ० ध० सू० (१।२।१-५) ने घोषणा की है-प्राचीन काल में वेदाध्ययन के लिए छात्र-जीवन प्रत्येक वेद के हिसाब से ४८ या २४ या १२ वर्षों तक चलता था, या (ले० सं० के) प्रत्येक काण्ड के लिए कम से कम एक-एक वर्ष निश्चित वा, या यह (छानजीवन) तब तक चलता था जब तक वेद कण्ठस्थ न हो जाय । क्योंकि जीवन क्षणभंगुर है और वेद आज्ञापित करता है--'जब तक बाल काले हैं, वह अग्निहोत्र करता रहे ।' आप० ध० सू० (१।१।२।११-१६) का कथन है कि ब्रह्मचारी को अपने आचार्य (गुरु) के यहाँ ४८ २४ या कम से कम १२ वर्षों तक रहना चाहिये । मनु (३३१) ने भी कहा है। गुरु के यहाँ तीनों वेदों के अध्ययन करने का संकल्प ३६ वर्षों या उसके आधे समय तक या चौथाई समय तक या उस समय तक करना चाहिये जब तक कि वेद कण्ठस्थ न हो जायें । कलियुग में वेदाध्ययन के लिए ४८, ३६ या २४ वर्षों (गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होने के पूर्व) की लम्बी अवधियाँ वजित हैं । यह कोई नयी बात नहीं थी। याज्ञ० (१३३६) ने प्रत्येक वेद के लिए १२ वर्षों की अवधि की अनुमति दी है या ५ वर्ष की भी अनुमति उन्हें दे दी है जो सभी वेदों का अध्ययन नहीं करना चाहते, केवल एक ही वेद पढ़ना चाहते हैं । इस प्रकार वेदाध्ययन की अल्पावधि याज्ञवल्क्य के मत से कम से कम ५ वर्ष है। बहुत ही कम लोग ४८ या ३६ वर्षों तक वेदाध्ययन करते रहे होंगे । शबर(जैमिनि १।३।३)ने बौधायन के उस वचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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