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________________ ६०४ धर्मशास्त्र का इतिहास की ( शान्ति० ६६ | ७२-७३ एवं अंगिरा अर्थात् बृहस्पति ) । ऐसा राजा सभी धर्मों का ज्ञाता है। कौटिल्य ने राजा की तुलना यज्ञ करने वाले से की है । राजा का सदैव क्रियाशील रहना ही व्रत है, शासन-कार्य के लिए अनुशासन पर चलना ही यज्ञ है, उसकी निष्पक्षता ही यज्ञ दक्षिणा है, उसका राज्य अभिषेक ही यज्ञ करने वाले का स्नान है । शान्तिपर्व (५६।४४ एवं ४६) एवं नीतिप्रकाशिका ( ८12) ने लिखा है कि राजा को गर्भवती स्त्री की भाँति मनचाहा नहीं करना चाहिए, प्रत्युत उसे प्रजा सुख के लिए शास्त्रविहित कार्य करना चाहिए, धर्म पर आश्रित रहना चाहिए । १० मार्कण्डेय पुराण (१३०।३३-३४ ) में राजा मरुत्त की मातामही ने उसे सावधान किया है- " राजा का शरीर आमोदप्रमोद के लिए नहीं बना है, प्रत्युत वह कर्तव्य पालन करने तथा पृथिवी की रक्षा करने के प्रयत्न में कष्ट सहने के लिए है ।" भारतीय ग्रन्थकारों ने राजा के शासन को पितृवत् माना है। कौटिल्य (२1१) ने लिखा है कि जो लोग कर - मुक्ति के नियमों के बाहर हैं उनके साथ पितृवत् व्यवहार करना चाहिए। याज्ञ० (१।३३४ ) ने लिखा है कि राजा को अपनी प्रजा तथा नौकरों के साथ पितृवत् व्यवहार करना चाहिए । यही बात शान्ति ० ( १३६ । १०४ - १०५ ) में भी पायी जाती है | रामायण (२।२।२८-४७ तथा ५।३५।६ - १४ ) में राम के गुणों का वर्णन करते हुए यह भी कहा गया है कि वे प्रजा के साथ पितृवत् व्यवहार करते थे, यदि प्रजा दुखी रहती तो वे दुखी हो जाते थे, यदि प्रजाजन आमोद-प्रमोद में मग्न होते थे तो उन्हें पिता के समान आनन्द मिलता था । इस विषय में और देखिए रामायण ( ३।६।११) । ११ कालिदास ने भी इन बातों की ओर संकेत किया है ( शाकुन्तल० ५।५, ६।२६ एवं रघुवंश १।२४ ) । हर्षचरित ( ५ ) में आया है-“राजा प्रजा के लिए न केवल ज्ञाति ( सम्बन्धी ) है, प्रत्युत बन्धु है ।” १ २ अशोक महान् अपने शिलालेखों में लिखता है -- " सभी लोग मेरे पुत्र हैं । " बहुत प्राचीन काल से ही राजाओं को कई श्रेणियों में बाँटा गया है। ऋग्वेद में कई स्थलों पर राजा शब्द आया है । यह शब्द मित्र एवं वरुण (ऋ० ७१६४१२, ११२४ १२ एवं १३ तथा १०।१७३ । ५) नामक देवों के लिए प्रयुक्त हुआ है । यह दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है -- (१) राजा के अर्थ में (ऋ० १६५७, ३।४३।५, यथा -- राजा इन्द्र, क्या आप मुझे लोगों का रक्षक बनाएँगे ? ४|४|१, ६७ ५, १०११७४|४ तथा (२) 'भद्र' व्यक्ति के अर्थ में, यथा--जहाँ पौधे उसी प्रकार साथ आते हैं जिस प्रकार भद्र लोग सभा में आते हैं "राजानः समिताविव” (ऋ० ६ १०३, १०७८१, १०।६७।६)। ऋग्वेद (८।२१।१८ ) में लिखा है -- "वह चित्र जिसने सहस्र एवं दस सहस्र दिये, केवल वही राजा है, अन्य लोग सरस्वती के तट पर छोटे-छोटे सामन्त मात्र हैं ।" सम्राट् शब्द ऋग्वेद में वरुण एवं इन्द्र ( क्रम से ६ | ६८ ई १०. लोकरंजनमेवात्र राज्ञां धर्मः सनातनः । शान्ति० ५७।११; यथा हि गर्भिणी हित्वा स्वं प्रियं मनसोअनुगम् । गर्भस्य हितमाधत्ते तथा राज्ञाप्यसंशयम् ।। वर्तितव्यं कुरुश्रेष्ठ सदा धर्मानुवर्तना । स्वं प्रियं तु परित्यज्य यद्यल्लोकहितं भवेत् ॥ शान्ति० ५६।४५-४६; धर्माय राजा भवति न कामकरणाय तु ।... धर्मे तिष्ठन्ति भूतानि धर्मो राजनि तिष्ठति ॥ शान्ति० ६०।१ एवं ५ | पौरजानपदार्थं तु ममार्थो नात्मभोगतः ॥ कामतो हि धनं राजा यः पारवयं प्रयच्छति । न स धर्मेण धर्मात्मन्युज्यते यशसा न च ॥ उद्योग ० ( ११८ ।१३-१४ ) । ११. राज्ञां शरीरग्रहणं न भोगाय महीपते । क्लेशाय महते पृथ्वीस्वधर्मपरिपालने ॥ मार्कण्डेय० (१३०| (३३-३४ ) ; पिता भ्राता गुरुः शास्ता वह्निर्वैश्रवणो यमः । सप्त राज्ञो गुणानेतान्मनुराह प्रजापतिः ।। पिता हि राजा लोकस्य प्रजानां योऽनुकम्पिता । शान्ति० ( १३६ । १०४ - १०५ ) ; अधर्मः सुमहान्नाय भवेत्तस्य महीपतेः । यो हरेद् बलिषड्भागं न च रक्षति पुत्रवत् ॥ अरण्यकाण्ड ६ |११| १२. प्रजाभिस्तु बन्धुमन्तो राजानो न ज्ञातिभिः । हर्षचरित्र (५) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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